EassyJal hi jiwan hai
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यह लोकोक्ति तो सभी कहते हैं मगर जल में ही जीवन है इसका कोई बखान नहीं करता है। अगर सभी यह कहने लगे की जल भी हमारी तरह जिंदा है। जीवधारी है। ज्ञान, दर्शन, चेतना वाला है तो निश्चित ही हम जल की व्यर्थ बर्बादी को रोककर उसकी बचत और सुरक्षा करने लगेगे। नहाने को चाहिए दो लोटा, प्रयोग करते है २-३ बाल्टी। अब तो वस्त्र विहीन होकर स्विमिंग पूल में घंटों उलट पुलट कर तैरते हुए जल की बर्बादी करते हैं। पहले घर के बर्तन भी सुखी राख़ से साफ किए जाते थे इसके विपरीत अब कई बाल्टी पानी चाहिए उन बर्तनो को साफ करने के लिए। पहले शौच जाने के लिए एक लौटा जल से ही काम चल जाता था परन्तु अब काफी मात्र में पानी की आवश्यकता पड़ती है। यही नहीं जल में जोड़ते हैं मल और मल के माध्यम से नष्ट करते हैं पल-पल असंख्यात अनंतानंत जलकायिक जीवों का। क्या कभी इस और हमने विचार किया । पहले फुलझाड़ू से घर की सफाई होती थी अब उसके साथ गीला पौंछा लगता है। मुलायम झाड़ू होने के कारण जीव बच जाते थे लेकिन गीले कपड़े की साफ़ी की रगड़ती मार के कारण जीवों का बचपाना संभव नहीं है। कल कारखानों का तीखा विषाक्त घोल और शहर की गंदी नालियों का गंदा पानी नदियों में बहाया जाता है। नदी में ही धर्म के नाम पर ही मुर्दे का प्रवाह किया जाता है तथा मुर्दे की जली हुई राख़ और हड्डियाँ, अस्थियाँ को नदी में विसर्जित की जाती है। कैसे जियेंगे जल के प्राणी, कैसे रहेगा जल शुद्ध ? कैसे कायम रहेगी जल की पवित्रता। ये सोचने का विषय है।
लोंगों की दीन बुद्धि पर तरस आता है एक और तो मुर्दा और अस्थियाँ गंगा और नर्वदा जैसी नदियों में विसर्जित करते हैं और दूसरी और सफाई अभियान के नाम पर करोड़ो रूपिया देश का बर्बाद करते हैं। कैसी विडम्बना है। ताज्जुब है कि इसी जल से हमारा जीवन संभव है, जल से ही फसलें लहलहाती हैं, जल से ही सब्जियाँ उगाई जाती है। यही अपवित्र जल हम अपने आराध्य देव के ऊपर चढ़ाते हैं। पहले जितने जल से पूरी मंजिल बन जाती थी परंतु आज उससे अधिक जल मंजिल की छत कि ढलाई में लग जाता है। जल का इतना भयानक दोहन हुआ है कि धरती माता की छाती ही सुख गई। इससे भी हमारा पेट नहीं भरा तो हमने धरती माँ की छाती में छेद करके सेकड़ों फीट की गहराई से जल निकालने लगे। पता नहीं कुदरत का कहर जब टूटेगा तो हमें क्या क्या नहीं सहना पड़ेगा। जब हम गहराई में जलकायिक जीवों का घात कर रहे हैं तथा बिगाड़ रहे हैं प्रकृति का सन्तुलन तो बताइये क्या हमें भी उतने गहरे नरक या निगोद में पहुँचकर सजा नहीं भोगनी पड़ेगी ? अर्थात अवश्य दुर्गति का भाजन बनना होगा। इस पर बहुत ही गहन चिंतन करने की आवश्यकता है।
plz mark it as the brainliest
लोंगों की दीन बुद्धि पर तरस आता है एक और तो मुर्दा और अस्थियाँ गंगा और नर्वदा जैसी नदियों में विसर्जित करते हैं और दूसरी और सफाई अभियान के नाम पर करोड़ो रूपिया देश का बर्बाद करते हैं। कैसी विडम्बना है। ताज्जुब है कि इसी जल से हमारा जीवन संभव है, जल से ही फसलें लहलहाती हैं, जल से ही सब्जियाँ उगाई जाती है। यही अपवित्र जल हम अपने आराध्य देव के ऊपर चढ़ाते हैं। पहले जितने जल से पूरी मंजिल बन जाती थी परंतु आज उससे अधिक जल मंजिल की छत कि ढलाई में लग जाता है। जल का इतना भयानक दोहन हुआ है कि धरती माता की छाती ही सुख गई। इससे भी हमारा पेट नहीं भरा तो हमने धरती माँ की छाती में छेद करके सेकड़ों फीट की गहराई से जल निकालने लगे। पता नहीं कुदरत का कहर जब टूटेगा तो हमें क्या क्या नहीं सहना पड़ेगा। जब हम गहराई में जलकायिक जीवों का घात कर रहे हैं तथा बिगाड़ रहे हैं प्रकृति का सन्तुलन तो बताइये क्या हमें भी उतने गहरे नरक या निगोद में पहुँचकर सजा नहीं भोगनी पड़ेगी ? अर्थात अवश्य दुर्गति का भाजन बनना होगा। इस पर बहुत ही गहन चिंतन करने की आवश्यकता है।
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यह लोकोक्ति तो सभी कहते हैं मगर जल में ही जीवन है इसका कोई बखान नहीं करता है। अगर सभी यह कहने लगे की जल भी हमारी तरह जिंदा है। जीवधारी है। ज्ञान, दर्शन, चेतना वाला है तो निश्चित ही हम जल की व्यर्थ बर्बादी को रोककर उसकी बचत और सुरक्षा करने लगेगे। नहाने को चाहिए दो लोटा, प्रयोग करते है २-३ बाल्टी। अब तो वस्त्र विहीन होकर स्विमिंग पूल में घंटों उलट पुलट कर तैरते हुए जल की बर्बादी करते हैं। पहले घर के बर्तन भी सुखी राख़ से साफ किए जाते थे इसके विपरीत अब कई बाल्टी पानी चाहिए उन बर्तनो को साफ करने के लिए। पहले शौच जाने के लिए एक लौटा जल से ही काम चल जाता था परन्तु अब काफी मात्र में पानी की आवश्यकता पड़ती है। यही नहीं जल में जोड़ते हैं मल और मल के माध्यम से नष्ट करते हैं पल-पल असंख्यात अनंतानंत जलकायिक जीवों का। क्या कभी इस और हमने विचार किया । पहले फुलझाड़ू से घर की सफाई होती थी अब उसके साथ गीला पौंछा लगता है। मुलायम झाड़ू होने के कारण जीव बच जाते थे लेकिन गीले कपड़े की साफ़ी की रगड़ती मार के कारण जीवों का बचपाना संभव नहीं है। कल कारखानों का तीखा विषाक्त घोल और शहर की गंदी नालियों का गंदा पानी नदियों में बहाया जाता है। नदी में ही धर्म के नाम पर ही मुर्दे का प्रवाह किया जाता है तथा मुर्दे की जली हुई राख़ और हड्डियाँ, अस्थियाँ को नदी में विसर्जित की जाती है। कैसे जियेंगे जल के प्राणी, कैसे रहेगा जल शुद्ध ? कैसे कायम रहेगी जल की पवित्रता। ये सोचने का विषय है।
लोंगों की दीन बुद्धि पर तरस आता है एक और तो मुर्दा और अस्थियाँ गंगा और नर्वदा जैसी नदियों में विसर्जित करते हैं और दूसरी और सफाई अभियान के नाम पर करोड़ो रूपिया देश का बर्बाद करते हैं। कैसी विडम्बना है। ताज्जुब है कि इसी जल से हमारा जीवन संभव है, जल से ही फसलें लहलहाती हैं, जल से ही सब्जियाँ उगाई जाती है। यही अपवित्र जल हम अपने आराध्य देव के ऊपर चढ़ाते हैं। पहले जितने जल से पूरी मंजिल बन जाती थी परंतु आज उससे अधिक जल मंजिल की छत कि ढलाई में लग जाता है। जल का इतना भयानक दोहन हुआ है कि धरती माता की छाती ही सुख गई। इससे भी हमारा पेट नहीं भरा तो हमने धरती माँ की छाती में छेद करके सेकड़ों फीट की गहराई से जल निकालने लगे। पता नहीं कुदरत का कहर जब टूटेगा तो हमें क्या क्या नहीं सहना पड़ेगा। जब हम गहराई में जलकायिक जीवों का घात कर रहे हैं तथा बिगाड़ रहे हैं प्रकृति का सन्तुलन तो बताइये क्या हमें भी उतने गहरे नरक या निगोद में पहुँचकर सजा नहीं भोगनी पड़ेगी ? अर्थात अवश्य दुर्गति का भाजन बनना होगा। इस पर बहुत ही गहन चिंतन करने की आवश्यकता है।
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