Hindi, asked by NANDITA5882, 11 months ago

Education differnces between old days and now in hindi

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Answered by ahmad60
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गुरुकुल' का शाब्दिक अर्थ है 'गुरु का परिवार' अथवा 'गुरु का वंश'। परंतु यह सदियों से भारतवर्ष में शिक्षासंस्था के अर्थ में व्यवहृत होता रहा है। गुरुकुलों के इतिहास में भारत की शिक्षाव्यवस्था और ज्ञानविज्ञान की रक्षा का इतिहास समाहित है। भारतीय संस्कृति के विकास में चार पुरुषार्थों, चार वर्णो और चार आश्रमों की मान्यताएँ तो अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए अन्योन्याश्रित थी ही, गुरुकुल भी उनकी सफलता में बहुत बड़े साधक थे। यज्ञ और संस्कारों द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बालक 6, 8 अथवा 11 वर्ष की अवस्थाओं में गुरुकुलों में ले जाए जाते थे (यज्ञोपवीत, उपनयन अथवा उपवीत) और गुरु के पास बैठकर ब्रह्मचारीके रूप में शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु उनके मानस और बौद्धिक संस्कारों को पूर्ण करता हुआ उन्हें सभी शास्त्रों एवं उपयोगी विद्याओं की शिक्षा देता तथ अंत में दीक्षा देकर उन्हें विवाह कर गृहस्थाश्रम के विविध कर्तव्यों का पालन करने के लिए वापस भेजता। यह दीक्षित और समावर्तित स्नातक ही पूर्ण नागरिक होता और समाज के विभिन्न उत्तरदायित्वों का वहन करता हुआ त्रिवर्ग की प्राप्ति का उपाय करता। स्पष्ट है, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास में गुरुकुलों का महत्वपूर्ण योग था।

गुरुकुल प्राय: ब्राह्मण गृहस्थों द्वारा गाँवों अथवा नगरों के भीतर तथा बाहर दोनों ही स्थानों में चलाए जाते थे। गृहस्थ विद्वान और कभी कभी वाणप्रस्थी भी दूर दूर से शिक्षार्थियों को आकृष्ट करते और अपने परिवार में और अपने साथ रखकर अनेक वर्षों तक (आदर्श और विधान पच्चीस वर्षों तक का था) उन्हें शिक्षा देते। पुरस्कार स्वरुप ब्रह्मचारी बालक या तो अपनी सेवाएँ गुरू और उसके परिवार को अर्पित करता या संपन्न होने की अवस्था में अर्थशुल्क ही दे देता। परंतु ऐसे आर्थिक पुरस्कार और अन्य वस्तुओं वाले उपहार दीक्षा के बाद ही दक्षिणास्वरूप दिए जाते और गुरु विद्यादान प्रारंभ करने के पूर्व न तो आगंतुक विद्यार्थियों से कुछ माँगता और न उनके बिना किसी विद्यार्थी को अपने द्वार से लौटाता ही था। धनी और गरीब सभी योग्य विद्यार्थियों के लिए गुरुकुलों के द्वार खुले रहते थे। उनके भीतर का जीवन सादा, श्रद्धापूर्ण, भक्तिपरक और त्यागमय होता था। शिष्य गुरु का अंतेवासी होकर (पास रहकर) उसके व्यक्तित्व और आचरण से सीखता। गुरु और शिष्य के आपसी व्यवहारों की एक संहिता होती और उसका पूर्णत: पालन किया जाता। गुरुकुलों में तब तक जाने हुए सभी प्रकार के शास्त्र और विज्ञान पढ़ाए जाते और शिक्षा पूर्ण हो जाने पर गुरु शिष्य की परीक्षा लेता, दीक्षा देता और समावर्तन संस्कार संपन्न कर उसे अपने परिवार को भेजता। शिष्यगण चलते समय अपनी शक्ति के अनुसार गुरु को दक्षिणा देते, किंतु गरीब विद्यार्थी उससे मुक्त भी कर दिए जाते थे।

भारतवर्ष में गुरुकुलों की व्यवस्था बहुत दिनों तक जारी रही। राज्य अपना यह कर्तव्य समझता था कि गुरुओं और गुरुकुलों के भरण पोषण की सारी व्यवस्था करें। वरतंतु के शिष्य कौत्स ने अत्यंत गरीब होते हुए भी उनसे कुछ दक्षिणा लेने का जब आग्रह किया तो गुरु ने क्रुद्ध होकर एक असंभव राशि चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ-माँग दीं। कौत्स ने राजा रघु से वह धनराशि पाना अपना अधिकार समझा और यज्ञ में सब कुछ दान दे देनेवाले उस अकिंचन राजा ने उस ब्राह्मण बालक की माँग पूरी करने के लिए कुबेर पर आक्रमण करने की ठानी। रघुवंश की इस कथा में अतिमानवीय पुट चाहे भले हों, शिक्षासंबंधी राजकर्तव्यों का यह पूर्णरूपेण द्योतक है। पालि साहित्य में ऐसी अनेक चर्चाएँ मिलती हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि प्रसेनजित जैसे राजाओं ने उन वेदनिष्णात ब्राह्मणों को अनेक गाँव दान में दिए थे, जो वैदिक शिक्षा के वितरण के लिए गुरुकुल चलाते। यह परंपरा प्राय: अधिकांश शासकों ने आगे जारी रखी और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों को दान में दिये गए ग्रामों में चलने वाले गुरुकुलों और उनमें पढ़ाई जानेवाली विद्याओं के अनेक अभिलेखों में वर्णन मिलते हैं। गुरुकुलों के ही विकसित रूप तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वलभी के विश्वविद्यालय थे। जातकों, ह्वेवनेसांग के यात्राविवरण तथा अन्य अनेक संदर्भों से ज्ञात होता है कि उन विश्वविद्यालयों में दूर दूर से विद्यार्थी वहाँ के विश्वविख्यात अध्यापकों से पढ़ने आते थे। वाराणसी अत्यंत प्राचीन काल से शिक्षा का मुख्य केंद्र थी और अभी हाल तक उसमें सैकड़ों गुरुकुल, पाठशालाएँ रही हैं और उनके भरण पोषण के लिए अन्नक्षेत्र चलते रहे। यही अवस्था बंगाल और नासिक तथा दक्षिण भारत के अनेक नगरों में रही। 19वीं शताब्दी में प्रारंभ होनेवाले भारतीय राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग में प्राचीन गुरुकुलों की परंपरा पर अनेक गुरुकुल स्थापित किए गए और राष्ट्रभावना के प्रसार में उनका महत्वपूर्ण योग रहा। यद्यपि आधुनिक अवस्थाओं में प्राचीन गुरुकुलों की व्यवस्था को यथावत पुन: प्रतिष्ठित तो नहीं किया जा सकता, तथापि उनके आदर्शों को यथावश्यक परिवर्तन के साथ अवश्य अपनाया जा सकता है।

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