Hindi, asked by anne9521, 1 year ago

Ek Vivek master ka hota hai aur dusra Se Dil Ko tar nibandh

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Answered by mchatterjee
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अपने दिमाग का प्रयोग तर्कसंगत निर्णय लेने में करें। विवादित बयानों के लिए दिमाग की जरूरत होती है। वहां दिल के निर्णय की कोई महत्व नहीं रहती है।

इसके अलावा आपके जीवन से जुड़े किसी भी फैसले के लिए आपको अपने दिल और दिमाग दोनों से निर्णय लेना चाहिए।

याद रखें दिल के निर्णय को दिमाग पर और दिमाग के निर्णय को दिल पर हावी नहीं होने देना है। फैसले ऐसे लिजिए जिससे की आपको कोई तकलीफ़ न हो।

Answered by Anonymous
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Hey dear friend ,

Here is your answer. - -

प्रिय मित्र!
हम आपके प्रश्न के लिए अपने विचार दे रहे हैं। आप इसकी सहायता से अपना उत्तर पूरा कर सकते हैं।
●●●●●भगवान धन्वंतरी ने कहा ज्यादा तीखा, मीठा, खारा और बासा भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि ज्यादा तीखा या मीठा खाना रोगों को दावत देने जैसा है । वास्तव में आप की जीभ का स्वाद ही आपके दिमाग की इच्छा है । आपकी जीभ की नसें सीधे दिमाग तक जाती है, तत्पश्चात दिमाग बताता है कि ये तीखा मीठा क्या है और कितना चाहिए। ये धारणा हम दिमाग में बनाते है तब ही परिणाम आता है ।

 ये सर्वविदित है पर इसमें देखने जैसी एक चीज है कि इस फैसले को लेने के लिए हमने जिस माध्यम का इस्तेमाल किया उसमें मन सबसे पहले है । बुद्धि अपनी राय देती है और विवेक उसे तोलकर सही गलत बताता है। परन्तु मन कैसे माने उसकी बात । अगर मन ही मान ले बात बुद्धि और विवेक की तो झगड़ा क्या, कुछ भी तो नहीं । इसमें एक बारीक़ बात छुपी है जिसे हम हमेशा नजरअंदाज करते है वह है करने और न करने का फैसला । जैसे हमारे सामने रसगुल्ला रखा गया, मन कहता है खा, बुद्धि ने समझाया मन को कि नहीं । पर मन बुद्धि पर भारी है । अब कहा बुद्धि ने चलो एक खा लो । मन फिर कहता है कि एक से क्या होगा, दो खा परन्तु इसी बीच हमारा विवेक कहता है नहीं ये ठीक नहीं, मत खा मधुमेह हो जायेगा ।

एक विवेक दिमाग का होता है और एक विवेक दिल का होता है। यह कथन सत्य है। हम एक बात को यदि दिल के अनुसार सोचें फिर दिमाग के अनुसार सोचें, तो दोनों के निर्णय अलग-अलग होंगे। इसका मतलब है दिल उन बातों पर अपना विवेक का पूर्ण इस्तेमाल नहीं करता, जो उसे सोचना पड़ता है। दिमाग इन बातों पर अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल करता है और `किन्तु, परन्तु` अधिक सोचता है। इस तरह दोनों के नतीजे अलग-अलग आते हैं।
महाकवि तुलसीदास को अपनी पत्नी से बहुत ज्यादा लगाव था । इतना ज्यादा कि जब पत्नी मायके गयी तो वह निकल पड़े बारिश में मिलने उनसे। नदी पर पहुंचे, अर्थी तैर रही थी नदी में । उस पर बैठकर नदी पार की । छत पर सोयी थी पत्नी । सांप को रस्सी समझकर पकड़ा और छत पर पहुँच गये तुलसीदास । अपनी पत्नी को जगाया, खीझ गयी पत्नी, बोली क्या तुम भी इस हाड़ मांस के शरीर के पीछे पड़े हो । जितना मेरे इस शरीर से प्रेम है उतना यदि श्रीराम से कर लेते तो जीवन संवर जाता ।इसमें एक देखने जैसी बात यह है कि इन्द्रियां वश में करनी है और इन्द्रियों को वश में करे बिना मोक्ष नहीं मिल सकता, पर इन्द्रियों को वश में करने का तरीका क्या होगा इसको परिभाषित कौन करे । लोग अपने आपको जलते अंगारों पर चलाते है, बाल नोचवाते है, हिमालय में चले जाते है पर प्रश्न यह है कि क्या हिमालय में जाने से संसार छूटा, इन्द्रियां वश में हुई, काम वश में आया, क्रोध वश में आया, लोभ हटा, मोह हटा ? नहीं, बल्कि सच तो यह है कि एकांत में ये ज्यादा सताते है क्योंकि अंदर अभी भी यही चल रहा है हटा नहीं । आपको बता दूँ आज भी ९०% संन्यासी बनते है सिर्फ इसलिए कि कुछ है ही नहीं पास । चलो यही सही, साधु बनकर रोटी तो मिलेगी नहीं तो मेरे जैसे अनपढ़ गंवार को कौन क्या देगा ।●● ●

Thanks ;(☺☺☺☺
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