Hindi, asked by vidhi2224, 1 month ago

एक ऐसी भौलरक कहानी लरखखए क्जसके अिॊ भें मह वातम लरखा हो –“ अिॊ बरे का
बरा।’’ essay

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Answered by deepaktandan199
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Answer:

मनुष्य दूसरों के अनुभव से बहुत कुछ सीखता है। कई बार ऐसा भी होता है कि हम किसी दूसरे के अनुभव पर टिप्पणी करते हुए कह उठते हैं- …… काश! ऐसा पल मेरे जीवन में भी आया होता। मुझे एक सत्यकथा स्मरण हो आती है जो इसी वाक्य पर आधारित है। वह कथा मुझे मेरे दादा जी ने सुनाई थी। हमारे गाँव में मुख्यमार्ग बन रहा था। हिमाचल का क्षेत्र होने के कारण पथरीला व पहाड़ी मार्ग काटना पड़ रहा था। जगह-जगह ऊँची पहाडियाँ आ जातीं। खुदाई का काम चलते-चलते वेदी वंश से अधिग्रहण की गई एक पहाड़ी भूमि पर जा पहुंचा। अगली भूमि में पड़ते एक टीले तक पहुँच गया। वह टीला चारों ओर से पक्की पत्थरों से बनी पाँच-छह फुट चौड़ी व पच्चीस फुट ऊँची दीवारों से घिरा था। जून महीने की तपती धूप थी। लगभग बारह बजे का समय था। तेरह मज़दूर सड़क की खुदाई का काम कर रहे थे। टीले की दीवार तोड़ी जा चुकी थी। एक मजदूर की कुदाली से कोई ऐसी वस्तु टकराई जिससे ‘खन्न’ की ध्वनि निकली। मज़दर ने सोचा कि कोई भारी पत्थर होगा। उसने पुनः प्रहार किया तो ध्वनि और ज़ोर से आई। उसने हाथ से मिट्टी हटाई तो वह दंग रह गया। वहाँ एक पीतल की गागर दबी दिखाई दी। उसने दूसरे मज़दूरों को बुलाकर बताया। गागर की बात सुनकर सभी हैरान हो गए। वे जानते थे कि पुराने लोग अपना धन व आभूषण घड़ों-गागरों में भरकर जमीन में दबा दिया करते थे। गागर निकालने के लिए सभी एक-दूसरे से आगे होने लगे। एक मजदूर ने गागर में हाथ डाला तो एक प्याली निकली। मटमैली प्याली ने सबका उत्साह भंग कर दिया। कुल बारह प्यालियाँ निकलीं। वे निरुत्साह होकर काम पर लग गए। दोपहर में एक मज़दूर प्याली को थोड़ा साफ़ कर उसमें सब्जी डालकर खाने लगा। रोटी खाकर प्याली धोने लगा तो वह आश्चर्य में डूब गया। प्याली सोने जैसी चमक रही थी। शोर मच गया। एक पारखी ने उसे घिसकर देखा तो घोषणा की-“अरे मूर्यो! यह सचमुच सोने की प्यालियाँ हैं। तुम्हारे तो भाग खुल गये।” बँटवारे की समस्या गंभीर थी। मज़दूर तेरह थे और प्यालियाँ केवल बारह थीं। विवाद होने लगा। तेरहवें मजदूर को कैसे संतुष्ट किया जाए? इस पर पारखी मजदूर ने सुझाव दिया-“एक प्याली की आज की कीमत लगभग पचास रुपये होगी। तेरहवें व्यक्ति को शेष बारह लोग पाँच-पाँच रुपये डालकर साठ रुपये दे दें तो मामला सुलझ जाएगा।” परंतु कोई न माना। गंभीर पल था। विवाद गहराने लगा। कोई भी पैसे लेने को तैयार न था। पारखी मज़दूर ने पुनः कहा-“यदि आपस में झगड़ते रहोगे तो ये प्यालियाँ ज़मीन का असली वारिस ले जाएगा।” मज़दूर ठहरे मज़दूर। वे न माने। आखिर तय हो गया कि सभी अपने अंगोछे की एक कतरन इस गागर में डालेंगे। कोई एक मजदूर आँख बंद करके बारी-बारी बारह कतरनें बाहर निकालेगा। जिसकी कतरन रह जाएगी, उसे प्याली न दी जाए। पहले तो सभी मान गए परंतु जब कतरनें निकाली गईं तो तेरहवाँ मज़दूर असंतुष्ट हो गया। शाम होते न होते उसने ज़मीन के मालिक को भेद बता दिया और वह आकर गागर समेत सभी प्यालियाँ ले गया। यह कहानी सुनते ही मेरे मस्तिष्क में यही विचार कौंधा-काश! ऐसा पल मेरे जीवन में आया होता तो मैं मज़दूरों में एक सर्वमान्य समझौता करवा देता। विवेक मानव के लिए समृद्धि का मार्ग खोलता है और विवेकहीनता पतन व निराशा का।

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