एक अन्तःकथा : सिंहासन खाली है
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म्राज्य लिप्सा, राजनैतिक कुचक्रों, झूठे वादों, कोरे आश्वासनों और सत्ता अथवा
हासन के प्रति मोह ने जनता को सदैव उत्पीड़ित किया है। मानव सभ्यता के
मेक विकास के दौर में जब पहली बार 'सत्ता', 'सिंहासन' तथा 'राजा' की स्थापना
होगी, शायद तभी से बहुत स्वाभाविक रूप में राजा और प्रजा के मधुर सम्बन्धों
बीच यह ज़हर छुल गया होगा। राजा इस विश्वास के साथ बनाया जाता है कि
सत्ता और सिंहासन से समृद्ध एवं सशक्त होकर प्रजा का पोषण तथा रक्षण करेगा
तु राजा, राजा बनते ही निरंकुश हो जाता है, स्वार्थी हो जाता है, बेईमान हो जात
मदान्ध हो जाता है। प्रजा के हित की बात तो दूर, उसका शोषण और भक्षण
ने लगता है। इसी प्रकार सत्ता के साथ विरोध जन्म लेता है और विरोध संघर्ष
यंत्र और हत्याओं की रचना करता है। ये परिस्थितियाँ हर देश, काल में होती आर्य
अभी भी कोई परिवर्तन नहीं है हाँ स्वरूप अवश्य बदल गया है। शोषक औ
तकारी राजा से बोझिल 'सिंहासन' सही अर्थों में खाली ही कहा जायेगा जब त
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