एक मौलिक कहानी जो कि 1000 शब्दों में हो जिसका आधार हो जैसा बोलेंगे वैसा ही पाएंगे
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कवि सुमित्रानंदन पंत ने प्रस्तुत कविता में इस सूक्ति को प्रमाणित किया है कि समाज में रहने वाला प्राणी जैसा बोएगा, वैसा ही काटेगा। अर्थात् हम अपने कर्मों का फल अवश्य पाते हैं। कवि ने अपने बचपन के एक हास्यास्पद विचार को आधार बनाकर एक महान् सत्य की ओर संकेत दिया है। कवि पंत ने बचपन में पैसों के बीज बोकर यह आशा की थी कि पैसों के पेड़ उगेंगे और उन पैसों को पाकर वह धनी सेठ बन जाएगा। परंतु ऐसा न हो सका। इस घटना के पचास वर्ष बाद कवि अपने आँगन की गीली मिट्टी में सेम के बीज बोता है। कवि को यह देखकर आश्चर्य होता है कि समय पाकर उन बीजों पर अंकुर निकल आते हैं जो छतरियों की तरह दिखाई देते हैं। समय पाकर सेम की लता फैल जाती है। उन लताओं पर बहुत-सी फलियाँ लगती हैं। कवि सोचता है कि धरती हमें कितना कुछ देती है। धरती हमारी माता है जो अपने पुत्रों को बहुत कुछ देती है। उसे बालपन में यह भेद समझ नहीं आया था। इसीलिए लालच में आकर उसके गर्भ में पैसों के बीज बो दिए थे। कवि समझाना चाहता है कि प्रकृति का अपना नियम है। धरती में हम जो कुछ बोते हैं, वैसा ही काटेंगे। परंतु पैसे बोने से वह पैसों के पेड़ नहीं उगाती क्योंकि ऐसा करना लालच व स्वार्थ का सूचक है। जब हम उसके गर्भ में अनुकूल व प्रकृति के नियम के अनुसार बीज बोते हैं तो वह हमें कितना कुछ देती है। इस प्रकार वह रत्न पैदा करने वाली सिद्ध होती है। कवि के शब्दों में- ‘रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।’ कवि की मूल दृष्टि मानवतावादी है। वह अपने समाज में फैले वर्ग-भेद से व्यथित है। उसे इस बात का दुःख है कि हम अपने समाज का घृणित स्तरीकरण कर रहे हैं। इस प्रकार अपने ही जैसे मनुष्यों से घृणा करने लगते हैं। हमें धरती से शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। वह हमें कितना कुछ देती है और बदले में हमसे कुछ भी उम्मीद नहीं रखती। पंत का विचार है कि हमें धरती में सच्ची समता के दाने बोने हैं ताकि विषमता और असमानता के अभिशाप से मुक्ति मिले। कवि के शब्दों में ‘इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं।’ पंत को मानव की क्षमता पर अटूट विश्वास है। वह चाहता है कि प्रत्येक मानव अपनी इस अद्भुत क्षमता का उपयोग जन-कल्याण के लिए करे। उसका विचार है-“इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं।” आज मनुष्य ममताहीन या निर्मम होता जा रहा है। अतः हमें चाहिए कि मानव की ममता के दाने बोए जाएँ ताकि उससे सुनहली फ़सलें उग सकें। ये फ़सलें मानवता की होंगी। कवि के अनुसार “मानवता की जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ, हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।” ये कुल मिलाकर कवि ने प्रकृति-चित्रण के बहाने मानवता का संदेश दिया है जिसमें स्वार्थहीन परोपकार, समता, क्षमता और ममता का व्यवहार अपनाया जाए। तभी हमारा समाज वर्गहीन घृणाहीन और सक्षम बन पाएगा क्योंकि हम जैसा समाज रूपी धरती में बीज बोएँगे, वैसा ही फल प्राप्त करेंगे।Read more on Sarthaks.com - https://www.sarthaks.com/833643/