एक मनुज संचित करता है,
अर्थ पाप के बल से,
और भोगता उसे दूसरा
भाग्यवाद के छल से।
नर-समाज का भाग्य एक है,
वह श्रम, वह भुजबल है,
जिसके सम्मुख झूकी हुई-
पृथ्वी, विनीत नभ-तल है।
जिसने श्रम-जल दिया उसे
पीछे मत रह जाने दो,
विजीत प्रकृति से पहले
उसको सुख पाने दो।
जो
कुछ न्यस्त प्रकृति में है
वह मनुज मात्र का धन है,
धर्मराज! उसके कण-कण का
अधिकारी जन-जन है।
डॉ.रामधारी सिंह 'दिनकर
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बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्”।।इति।।
श्लोक के उत्तरार्ध पर यदि गौर करें तो दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली योग की परिभाषा एवं दूसरी योग हेतु प्रभु का स्पष्ट निर्देश। उनका उपदेश है कि ‘योगाय’ अर्थात् योग के लिए अथवा योग में, ‘युज्यस्व’ अर्थात् लग जाओ। कहने का तात्पर्य है कि ‘योग में प्रवृत्त हो जाओ’ यानि कि ‘योग करो’। अब प्रश्न यह है कि क्यूँ करें योग? इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने श्लोक के पूर्वार्ध में दिया है कि बुद्धिमान व्यक्ति अर्थात् योगी, वर्तमान में ही अथवा इस संसार में ही ‘सुकृत’ एवं ‘दुष्कृत’ अर्थात् पुण्य एवं पाप से मुक्त हो जाता है। योग के इस हेतु को स्पष्टतया जानने के लिये, सबसे पहले यह समझना परमावश्यक है कि ‘योग क्या है’? या ‘योग किसे कहते हैं’?
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