एक नाटक लेखन।
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कथावस्तु –
कथावस्तु को ‘नाटक’ ही कहा जाता है अंग्रेजी में इसे ‘प्लॉट’ की संज्ञा दी जाती है जिसका अर्थ आधार या भूमि है। कथा तो सभी प्रबंध का प्रबंधात्मक रचनाओं की रीढ़ होती है और नाटक भी क्योंकि प्रबंधात्मक रचना है इसलिए कथानक इसका अनिवार्य है।
भारतीय आचार्यों ने नाटक में तीन प्रकार की कथाओं का निर्धारण किया है –
१ प्रख्यात
२ उत्पाद्य
३ मिस्र प्रख्यात कथा।
प्रख्यात कथा –
प्रख्यात कथा इतिहास , पुराण से प्राप्त होती है। जब उत्पाद्य कथा कल्पना पराश्रित होती है , मिश्र कथा कहलाती है।
इतिहास और कथा दोनों का योग रहता है।
इन कथा आधारों के बाद नाटक कथा को मुख्य तथा गौण अथवा प्रासंगिक भेदों में बांटा जाता है , इनमें से प्रासंगिक के भी आगे पताका और प्रकरी है । पताका प्रासंगिक कथावस्तु मुख्य कथा के साथ अंत तक चलती है जब प्रकरी बीच में ही समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त नाटक की कथा के विकास हेतु कार्य व्यापार की पांच अवस्थाएं प्रारंभ प्रयत्न , परपर्याशा नियताप्ति और कलागम होती है।
इसके अतिरिक्त नाटक में पांच संधियों का प्रयोग भी किया जाता है।
वास्तव में नाटक को अपनी कथावस्तु की योजना में पात्रों और घटनाओं में इस रुप में संगति बैठानी होती है कि पात्र कार्य व्यापार को अच्छे ढंग से अभिव्यक्त कर सके। नाटककार को ऐसे प्रसंग कथा में नहीं रखनी चाहिए जो मंच के संयोग ना हो यदि कुछ प्रसंग बहुत आवश्यक है तो नाटककार को उसकी सूचना कथा में दे देनी चाहिए।
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