एक सैनिक की आत्मकथा
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मैं भारत का एक सैनिक हूँ। जन्म से मैं देहाती और साथ ही एक किसान हूँ। पुस्तकों का ज्ञान और अनुभव तो मेरे पास नाममात्र को है, पर उत्साह और सहनशक्ति असीम है। जब मैं भरती होने आया तो धोती-कुरता पहने हुए था। मेरे कुछ साथी, जो ठेठ उत्तर के रहनेवाले थे, पायजामा और कुरता पहने हुए थे।
सेना का वातावरण हमारे लिए बिलकुल नया व अनजाना था। हमें यह भी विदित नहीं था कि वरदी कैसे पहनी जाती है। एक बार मैंने दाएँ पैर का जूता बाएँ. में और बाएँ का जूता दाएँ में पहन लिया था। किंतु सीखने की शक्ति और रुचि मुझमें बहुत अधिक थी। दस-पंद्रह दिन के पश्चात् मुझे देखकर लोगों को विश्वास नहीं होता था कि मैं वही अनाड़ी रंगरूट हूँ, जिसे कुछ दिन पहले जूते तक पहनना न आता था। हमें कुछ मास तक प्रारंभिक प्रशिक्षण दिया गया। प्रात: नियम से ड्रिल होती थी। उस समय एक बटन का खुला रहना, परेड के समय जूतों पर चमक की कमी, बंदूक पर पॉलिश न करना आदि छोटी-छोटी बातों पर कड़ा व्यवहार होता था। एक भी कमी रह जाती तो अयोग्यता का चिह्न दे दिया जाता था। सेना में अनुभव की कमी को कुछ सीमा तक क्षमा किया जाता है, किंतु जानबूझकर अनुशासन का उल्लंघन अक्षम्य अपराध है। उसके लिए हमें अनिवार्य रूप से दंड मिलता था। परंतु अच्छे आचरण के लिए पुरस्कृत भी किया जाता था।
हमें सैनिक जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण विषयों का ज्ञान करवाया गया; जैसे शस्त्र चलाना, क्षेत्र-कौशल, तैराकी, घुड़सवारी आदि। इनका उद्देश्य हमें सफल और कुशल योद्धा बनाना था। योद्धा तो हम जन्म से ही थे। थोड़े से प्रशिक्षण ने हमें रण-योद्धाओं की पंक्ति में ला खड़ा किया और हमें हमारी यूनिट में भेज दिया गया।
आखिर वह रोमांचक दिन भी आ पहुँचा, जिस दिन के लिए वीर माताएँ अपने सपूतों को जन्म देती हैं। शत्रु ने हमारे देश पर आक्रमण करने का दुस्साहस किया था। कितना रोमांचक था वह क्षण, जब हम सीना ताने, मस्तक ऊँचा किए, शस्त्र चमकाते हुए मोरचे की ओर जा रहे थे। राष्ट्र-रक्षा का संकल्प हमारी नस-नस में खौल उठा था।
अहा ! वे क्षण हमें कभी भुलाए नहीं भूलेंगे जब हमारी वीर बहनों ने हमारी कलाइयों पर रक्षाबंधन के सूत्र बाँधे थे। जब प्रत्येक वीर पत्नी ने सैनिक पति के माथे पर केसर के तिलक लगाए थे। जब बड़े-बूढ़ों ने हमें आशीर्वाद दिए थे, “बेटा, युद्ध में ऐसा यश कमाकर लौटो कि कुल की शान बढ़े।” फिर भारत माँ की सौगंध, हम मन में यह संकल्प लेकर युद्धक्षेत्र की ओर बढ़े कि हम शत्रु को दिखा देंगे कि भारत में सिंह बसते हैं, गीदड़ नहीं।
लद्दाख समुद्र तल से बारह हजार से लेकर अठारह हजार फीट की ऊँचाई पर है। इतनी ऊँचाई पर दुनिया का सबसे पहला युद्ध हमने लड़ा, १९६२ में। वहाँ भयानक दरें हैं, गहरे खड्डे हैं; मार्ग कहीं है, कहीं नहीं। कदम-कदम पर खड्ड में गिरने का भय होता है। वहाँ ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम है कि साँस लेने में भी कठिनाई अनुभव होती है। ऊँचाई के कारण मितली और सिरदर्द होने लगता है। वहाँ भी हम पीठ पर सामान बाँधकर चले । घोड़े और याक भी वहाँ जवाब दे देते हैं। ऐसे स्थानों पर हमने कंधों पर उठाकर और रस्सी से खींचकर युद्ध-सामग्री ऊपर पहुँचाई। सर्दियों में वहाँ रक्त जमा देनेवाली सर्दी पड़ती है। नदियों और पानी के सब स्रोत जमकर पत्थर बन जाते हैं। वहाँ हम आग से पिघलाकर बर्फ पीते रहे और बर्फीले तूफानों में रहते रहे, उन्हें सहते रहे और लड़ते रहे।
युद्ध में हम फौलाद के हिंदुस्तानी बनकर लड़े। वहाँ हमारा रौद्र रूप देखने योग्य होता था। बंदूकों की गोलियाँ, तोपों की गर्जन और लोहू की फुहारें हमारे साथी होते थे। मांस फटने की ध्वनि, राइफलों के कुंदों से खोपड़ियाँ फटने की गूंज, दम तोड़ते सैनिकों की अंतिम हाहाकार सुनते हुए हम आगे बढ़ते जाते थे। शत्रु का संहार करते हुए हमारा यह रणनाद हमारे शरीर में बिजली दौड़ा देता था-‘भारत माता की जय’।
आज भी उन दिनों का स्मरण करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हममें से बहुत से सैनिक भारत माता पर बलिदान हो गए। हम भी घायल हुए, परंतु मोरचे से टस से मस न हुए।