एक साधारण आदमी कहानी दे मुखपत्र दa kaam दसों
Answers
उन्होंने मेज़ पर एक ज़ोरदार घूंसा मारा और मेज़ बहुत देर तक हिलती रही। 'मैं कहता हूं जब तक ऐट ए टाइम पांच सौ लोगों को गोली से नहीं उड़ा दिया जायेगा, हालात ठीक नहीं हो सकते।' अपनी खासी स्पीकिंगपावर नष्ट करके वह हांफने लगे। फिर उन्होंने अपना ऊपरी होंठ निचले होंठ से दबाकर मुझे घूरना शुरू किया। वह अवश्य समझ गये थे कि मैं मुस्करा रहा हूं। फिर उन्होंने घूरना बंद कर दिया और अपनी प्लेट पर पिल पड़े।
रोज़ ही रात को राजनीति पर बात होती है। दिन के दो बजे से रात आठ बजे तक प्रूफ़रीडिंग का घटिया काम करते-करते वह काफ़ी खिसिया उठते हैं।
मैंने कहा, 'उन पांच सौ लोगों में आप अपने को भी जोड़ रहे हैं?'
'अपने को क्यों जोडूं? क्या मैं क्रुक पॉलिटीशियन हूं या स्मगलर हूं या करोड़ों की चोरबाज़ारी करता हूं?' वह फिर मुझे घूरने लगे तो मैं हंस दिया। वह अपनी प्लेट की ओर देखने लगे।
'आप लोग तो किसी भी चीज़ को सीरियसली नहीं लेते हैं।'
खाने के बाद उन्होंने जूठी प्लेटें उठायीं और किचन में चले गये। कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे मिसेज़ डिसूजा ने कहा, 'डेविड, मेरे लिये पानी लेते आना।'
डेविड जग भरकर पानी ले आये। मिसेज़ डिसूजा को एक गिलास देने के बोले, 'पी लीजिए मिस्टर, पी लीजिए।'
मेरे इनकार करने पर जले-कटे तरीके से चमके, 'थैंक्स टू गॉड! यहां दिन-भर पानी तो मिल जाता है। अगर इंद्रपुरी में रहते तो पता चल जाता। ख़ैर, आप नहीं पीते तो मैं ही पिये लेता हूं,' कहकर वह तीन गिलास पानी पी गये।
खाने के बाद इसी मेज पर डेविड साहब काम शुरू कर देते हैं। आज भी वह प्रूफ़ का पुलिंदा खोलकर बैठ गये। उन्होंने मेज़ साफ की। मेज़ के पाये की जगह इसी ईंटों को हाथ से ठीक किया, ताकि मेज़ हिल न सके। फिर टूटी कुर्सी पर बैठे-बैठे अचानक अकड़ गये और नाक का चश्मा इस तरह फिट किया जैसे बंदूक में गोलियां भर ली हों। होंठ खास तरह से दबा लिये। प्रूफ़ पांडुलिपि से मिलाने लगे। गोलियां चलने लगीं। इसी तरह डेविड साहब रात बारह बजे तक प्रूफ़ देखते रहते हैं। इसी बीच से कम-से-कम पचास बार चश्मा उतारते और लगाते हैं। बंदूक में कुछ खराबी हैं। पांच साल पहले आंखें टैस्ट करवायी थीं और चश्मा खरीदा था। अब आंखें ज्यादा कमज़ोर हो चुकी हैं, परंतु चश्मे का नंबर नहीं बढ़ पाया है। हर महीने की पंद्रह तारीख को वह अगले महीने आंखें टैस्ट करवाकर नया चश्मा खरीदने की बात करते हैं। बंदूक की कीमत बहुत बढ़ चुकी है। प्रूफ़ देखने के बीच पानी पीयेंगे तो वह 'बासु की जय` का नारा लगायेंगे। 'बासु` उनका बॉस है जिससे उन्हें कई दर्जन शिकायतें मुझे भी हैं। ऐसी शिकायतें पेश्तर छोटा काम करने वालों को होती हैं।
'बड़ा जान लेवा काम है साहब।' वे दो-एक बार सिर उठाकर मुझसे कहते हैं। मैं 'हूं-हां` में जबाव देकर बात आगे बढ़ने नहीं देता। लेकिन वह चुप नहीं होते। चश्मा उतार कर आंखों की रगड़ाई करते हैं, 'बड़ी हाईलेविल बंगलिंग होती है। अब तो छोटे-मोटे करप्शन केस पर कोई चौंकता तक नहीं। पूरी मशीनरी सड़-गल चुकी है। ये आदमी नहीं, कुत्ते हैं कुत्ते. . .। मैं भी आजादी से पहले गांधी का स्टांच सपोर्टर था और समझता था कि नॉन-वाइलेंस इज द बेस्ट पॉलिसी। लटका दो पांच सौ आदमियों को सूली पर। अरे, इन सालों का पब्लिक ट्रायल होना चाहिए, पब्लिक ट्रायल!'