एक देशभक्त की आत्मकथा
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देशभक्ति का तात्पर्य अपने देश के साथ प्रेम करना है । यह मानव के हृदय में जलने वाली ईश्वरीय ज्वाला है जो अपनी जन्म भूमि को अन्य सभी से अधिक प्यार करने की शिक्षा देती है ।
देशभक्त अपने देश के लिए बड़े से बड़े त्याग करने के लिए आतुर रहते हैं और अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान होने के लिए सदा तैयार रहते हैं । कूपर ने कहा है ” इंगलैंड में कितनी भी कमियाँ क्यों न हो, मैं फिर भी इससे प्यार करता हूँ । ”
देशभक्ति एक श्रेष्ठ गुण है । एक संस्कृत उक्ति में कहा गया है कि मां और मातृभूमि तो स्वर्ग से भी महान है । अपने देश के दु:खों और खतरों में हमें इसके साथ खड़ा होने, इसके लिए कार्य करने और यदि आवश्यकता पड़े तो इसके लिए अपना जीवन अर्पण करने के लिए तैयार रहना चाहिए । क्या इसी देश ने अपनी गोदी में हमें खिलाया नही, अपनी विपुलता से हमारा पोषण और अपनी हार्दिकता से हमें सुरक्षा प्रदान नहीं की? अपने देश से प्यार न करना अकृतज्ञता के सिवाय कुछ नही ।
पुरन्तु इसका तात्पर्य यह नही है कि देशभक्ति ही सब कुछ है – यह हमेशा ही मनुष्य के लिए श्रेष्ठतम कर्तव्य नही होता । संकीर्ण विचार से परिपूर्ण देशभक्ति निश्चित रूप से खतरनाक है । ”मेरा देश, चाहे ठीक हो या गलत” अंग्रेजी के एक कवि की यह उक्ति मूर्खतापूर्ण और मानवता के प्रति अपराध है ।
इसी प्रकार की कुछ मूर्खतापूर्ण बाते है जिनकी अंग्रेज अपने संबंध में तो बड़ी-बड़ी डींगे मारते है और दूसरों के बारे में निन्दा करते है । एच.जी.वेल्स ने कहा है कि “देशभक्ति केवल अपने बारे में दावे करने, झण्डे का भावुकतापूर्ण जय-जयकार करना मात्र ही रह गया है और रचनात्मक कर्तव्यों पर कोई ध्यान नही दिया जाता ।’’ देशभक्ति का यही वह स्वरूप है जिसकी रवीन्द्र नाथ ने राष्ट्रवाद के अपने भाषणों मैं निन्दा की थी ।
कट्टरतापूर्ण देशभक्ति निरन्तर ही युद्ध का कारण बनता रहा है ऐसी देशभक्ति का विकास तभी होता है जब युद्ध होता है । इसीलिए विद्वान चीनी दार्शनिक लाओत्से ने इसे ”एक निकृष्ट और हानिकारक भावना” और ”एक मूर्खतापूर्ण सिद्धान्त” कहा
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