Hindi, asked by koushal228, 11 months ago

एक विवेक दिल करे और एक विवेक दिमाग का प्रस्तावना सहित निबंध

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Answered by Anonymous
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भगवान धन्वंतरी ने कहा ज्यादा तीखा, मीठा, खारा और बासा भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि ज्यादा तीखा या मीठा खाना रोगों को दावत देने जैसा है । वास्तव में आप की जीभ का स्वाद ही आपके दिमाग की इच्छा है । आपकी जीभ की नसें सीधे दिमाग तक जाती है, तत्पश्चात दिमाग बताता है कि ये तीखा मीठा क्या है और कितना चाहिए। ये धारणा हम दिमाग में बनाते है तब ही परिणाम आता है ।

 

ये सर्वविदित है पर इसमें देखने जैसी एक चीज है कि इस फैसले को लेने के लिए हमने जिस माध्यम का इस्तेमाल किया उसमें मन सबसे पहले है । बुद्धि अपनी राय देती है और विवेक उसे तोलकर सही गलत बताता है। परन्तु मन कैसे माने उसकी बात । अगर मन ही मान ले बात बुद्धि और विवेक की तो झगड़ा क्या, कुछ भी तो नहीं । इसमें एक बारीक़ बात छुपी है जिसे हम हमेशा नजरअंदाज करते है वह है करने और न करने का फैसला । जैसे हमारे सामने रसगुल्ला रखा गया, मन कहता है खा, बुद्धि ने समझाया मन को कि नहीं । पर मन बुद्धि पर भारी है । अब कहा बुद्धि ने चलो एक खा लो । मन फिर कहता है कि एक से क्या होगा, दो खा परन्तु इसी बीच हमारा विवेक कहता है नहीं ये ठीक नहीं, मत खा मधुमेह हो जायेगा ।

 

अब ये तीनों अवस्थाएं सामने है हमारे । बात ये है कि हम माने किसकी । एक तो यह है, और दूसरा यह है कि हम माने तो मन की पर साथ ही उसकी व्यर्थता को भी साबित कर दें । सही मायने में इच्छा को रोकने की तुलना में व्यर्थता साबित करना ठीक है । जैसे हमने पेट भर खाए रसगुल्ले, मानी मन की इतनी ज्यादा कि अति हो जाये जिससे । इतना खाए कि सहा न जाये पर उसके बाद जो होगा, उसे सोचकर ही जीवन भर आप कभी न करोगे ये क्योंकि अति ने आपके सामने व्यर्थता को उपस्थित कर दिया और निजात मिल गयी इससे आपको।

 

महाकवि तुलसीदास को अपनी पत्नी से बहुत ज्यादा लगाव था । इतना ज्यादा कि जब पत्नी मायके गयी तो वह निकल पड़े बारिश में मिलने उनसे। नदी पर पहुंचे, अर्थी तैर रही थी नदी में । उस पर बैठकर नदी पार की । छत पर सोयी थी पत्नी । सांप को रस्सी समझकर पकड़ा और छत पर पहुँच गये तुलसीदास । अपनी पत्नी को जगाया, खीझ गयी पत्नी, बोली क्या तुम भी इस हाड़ मांस के शरीर के पीछे पड़े हो । जितना मेरे इस शरीर से प्रेम है उतना यदि श्रीराम से कर लेते तो जीवन संवर जाता ।

 

आज मैंने सुना गुरु माँ को, कहा उन्होंने मेनका और विश्वामित्र के बारे में । क्या सम्भोग करना बुरा है ? अगर ये परमात्मा की नजर में इतना ही बुरा है तो क्यों है ये व्यवस्था । बहुत भ्रान्ति फैलायी हमारे तथाकथित ऋषि मुनियों ने जिन्होंने इसको अलग तरीके से समझाया । पहले के ज़माने में प्रथा थी कि यदि स्त्री कहे ये करने के लिए और सामने वाला मना करे तो अशोभनीय था यह तो क्या दोष विश्वामित्र का । मेनका ने स्वयं ही प्रस्ताव रखा था जिसे स्वीकार किया विश्वामित्र ने । हमने इसको सही तरीके से समझने की हिम्मत ही नहीं जुटायी? कैसे समझे अजंता, एलोरा और खजुराहो में चित्रित संभोगरत मूर्तियों को । बड़ी मेहनत, बड़े प्रयास और बड़ी समझ से बनायी गयी ये मूर्तियां क्या सन्देश देती है। गर्भ गृह में शिवलिंग है । कहते है इससे गुजरकर ही शिव मिलेंगे, अन्यथा मत लें इसको । जटिल दर्शन है पर है सत्य, साक्षात् मूर्तियां है शिव और पार्वती के संभोग की पर है ये सृष्टि की रचना के लिए । खजुराहो, एलोरा और अजंता की गुफाओं की मूर्तियों में जो कहा गया है क्या वह अश्लील है ? नहीं, ये तो प्राकृतिक सौंदर्य है । सिर्फ हमारी समझ को गलत दिशा में मोड़ा गया है । ये सृष्टि के रचयिता की मर्जी है । जो अधिकार दिया उसने स्त्री को, इसको इस नजर से देखें हम ।

 

आपको एक चीज और बताना चाहूँगा जब परशुराम ने पृथ्वी को अठारह बार क्षत्रियों से खाली कर दिया पर प्रश्न यह है कि यदि एक बार क्षत्रिय बचे ही नहीं तब वे दोबारा उनका वंश कैसे रहा । इसका जवाब है । जब भी परशुराम क्षत्रियों को मारते तब उनकी स्त्रियां बच जाती । वे ऋषि मुनियों के पास जाती संतान पाने की चाह में, आग्रह करती और ऋषि मुनि ये करते उनके लिए क्योंकि मना करना अशोभनीय था उस व्यवस्था में और उन्हें संतान मिलती । ऐसे ऋषि मुनि नियोगी कहलाते थे सब सोच का ही फेर है आज ये अपराध है सामाजिक व्यवस्था में, क्योंकि सोच में संकीर्णता आ गयी।

 

इसमें एक देखने जैसी बात यह है कि इन्द्रियां वश में करनी है और इन्द्रियों को वश में करे बिना मोक्ष नहीं मिल सकता, पर इन्द्रियों को वश में करने का तरीका क्या होगा इसको परिभाषित कौन करे । लोग अपने आपको जलते अंगारों पर चलाते है, बाल नोचवाते है, हिमालय में चले जाते है पर प्रश्न यह है कि क्या हिमालय में जाने से संसार छूटा, इन्द्रियां वश में हुई, काम वश में आया, क्रोध वश में आया, लोभ हटा, मोह हटा ? नहीं, बल्कि सच तो यह है कि एकांत में ये ज्यादा सताते है क्योंकि अंदर अभी भी यही चल रहा है हटा नहीं । आपको बता दूँ आज भी ९०% संन्यासी बनते है सिर्फ इसलिए कि कुछ है ही नहीं पास । चलो यही सही, साधु बनकर रोटी तो मिलेगी नहीं तो मेरे जैसे अनपढ़ गंवार को कौन क्या देगा ।

 


PrinceMP1: great one ....
Answered by mchatterjee
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दिल और दिमाग भले ही शरीर के दो अलग अलग स्थान पर रहते हो। मगर दिल और दिमाग का विवेक हमारे बहुत काम आता है। दिल और दिमाग एक दूसरे के पूरक हैं। दिल को हम दिमाग से अलग करके कुछ सोच ही नहीं सकते हैं।

दूसरे शब्दों में,दिल न केवल मस्तिष्क के अनुरूप है, बल्कि मस्तिष्क दिल से प्रतिक्रिया देता है। तनावपूर्ण या नकारात्मक भावनाओं के दौरान मस्तिष्क में दिल का इनपुट भी मस्तिष्क की भावनात्मक प्रक्रियाओं पर गहरा असर डालता है-वास्तव में तनाव के भावनात्मक अनुभव को मजबूत करने के लिए सेवा प्रदान करता है दिल।

दिल और दिमाग की जंग में दिमाग ही जीत जाता है।यदि आप मेरे जैसे हैं, तो संभवतः आपको अपने जीवन में निर्णय लेने के लिए सभी प्रकार की सलाह मिल गई है-- " आप अपने दिल को सुनो।"

अपने दिमाग का प्रयोग तर्कसंगत निर्णय लेने में करें। विवादित बयानों के लिए दिमाग की जरूरत होती है। वहां दिल के निर्णय की कोई महत्व नहीं रहती है।

इसके अलावा आपके जीवन से जुड़े किसी भी फैसले के लिए आपको अपने दिल और दिमाग दोनों से निर्णय लेना चाहिए।

याद रखें दिल के निर्णय को दिमाग पर और दिमाग के निर्णय को दिल पर हावी नहीं होने देना है। फैसले ऐसे लिजिए जिससे की आपको कोई तकलीफ़ न हो।

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