एकल परिवार के दुख पर निबंध
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एकल परिवारों के नुकसान
एकल परिवारों का सबसे बड़ा नुकसान यही हैं कि वे परिवार की अखंडता और एकता पर बहुत गहरा प्रहार करते हैं. माता-पिता बड़े शौक से यह सोचकर अपने बच्चों का पालन पोषण और उनकी अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करते हैं कि वृद्धावस्था में उनके बच्चे उन्हें सहारा देंगे. लेकिन होता इसका एकदम उलटा है. बच्चे काबिल बनने के बाद अपने अभिभावकों के बलिदानों और प्रेम की परवाह किए बगैर उनसे अलग अपनी एक नई दुनियां बसा लेते हैं, जिसमें माता-पिता के प्रति भावनाओं और उत्तरदायित्वों के लिए कोई स्थान नहीं होता.
एक-दूसरे से दूर रहने की वजह से पारिवारिक सदस्यों में आपसी मेलजोल की भावना भी कम होने लगती है. और धीरे-धीरे वह पूर्ण रूप से अपने ही परिवार से कट जाते हैं. जिसके फलस्वरूप उन्हें अपने ही संबंधियों के सुख-दुख से कोई वास्ता नहीं रहता. पहले जो तीज-त्यौहार पूरा परिवार एक साथ हर्षोल्लास के साथ मनाया करता था, आज वही त्यौहार अलग-थलग रहकर अनमने ढंग से मनाया जाने लगा है.
पहले जहां पारिवारिक सदस्यों की उपस्थिति उत्सवों में चार-चांद लगाया करती थी, आज वहीं उत्सव मात्र एक औपचारिकता बन कर रह गए हैं.
जब तक खुशी सबके साथ मिलकर ना मनाई जाए उसका महत्व समझ में नहीं आता, लेकिन अब तो ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं है. क्योंकि मनुष्य ने खुशी और गम के सभी रास्ते, जो उसके पारिवारिक सदस्यों तक पहुंचते थे, अब खुद ही बंद कर दिए हैं. जिस कारण अब उसे अकेले ही हर परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है.
संयुक्त परिवारों के विघटन और एकल परिवारों के उद्भव का सबसे बड़ा प्रभाव परिवार के बच्चों पर पड़ा है. नाती-पोतों के साथ समय व्यतीत करने का अरमान हर बुज़ुर्ग का होता है, साथ ही बच्चे भी अपने दादा-दादी के साथ समय बिताना पसंद करते हैं. लेकिन एकल परिवारों की बढ़ती संख्या परिवार के बच्चों को बड़ों के दुलार और स्नेह से महरूम रखने का कार्य करती है. खासतौर पर आज जब महिला और पुरुष दोनों ही बाहर कार्य करने जाते हैं और बच्चे घर में अकेले होते हैं, ऐसे में बड़ों के सहारे की आवश्यकता और बढ़ने लगी है.
एकल परिवारों के फायदे
आज की बढ़ती हुई महंगाई और भागती-दौड़ती जीवनशैली को देखा जाए तो एकल परिवारों के केवल नुकसान ही नहीं कई फायदे भी नज़र आते हैं. वर्तमान आर्थिक हालात ऐसे नहीं हैं कि घर का एक सदस्य आजीविका कमा कर लाए और बाकी सदस्य उतने से ही संतुष्ट हो अपना जीवन यापन करने की बात सोचें. जबकि पहले परिस्थितियां ऐसी नहीं थीं. पहले एक व्यक्ति की आमदनी पूरे परिवार का भरण-पोषण करने के लिए काफी थी इसलिए उस वक्त तो संयुक्त परिवार की महत्ता समझ में आती थी किंतु बदलते दौर में संयुक्त परिवार की व्यवहार्यता पर प्रश्न चिंह लगना स्वाभाविक है.
आज के प्रतिस्पर्धा प्रधान समाज में पति-पत्नी दोनों ही कमाते हैं और अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए हर संभव प्रयत्न भी करते हैं. ताकि उनके बच्चे आगे चलकर अच्छा ओहदा, मान प्रतिष्ठा और धन को प्राप्त कर पाएं साथ ही समाज में एक प्रतिष्ठित नागरिक की भांति जीवन व्यतीत कर सकें.
आमतौर पर देखा गया है कि भौतिकवादी समाज में मनुष्य की सामाजिक प्रतिष्ठा भी उसकी धन-सृजन क्षमता पर ही निर्भर करती है, और परिवारिक सदस्यों की अधिकता धन अर्जित करने में बाधा बन कर उभर सकती है. जिसके फलस्वरूप एकल परिवार ही बेहतर विकल्प साबित हो सकते हैं.
इसके अलावा तनाव से भरी जीवनशैली में मनुष्यों की सहनशक्ति में भी कमी आने लगी है. छोटी-छोटी बातों पर जल्दी ही आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया जाता है, जिससे संबंध विच्छेद होने की संभावनाएं कई गुना बढ़ जाती हैं. पारिवारिक सदस्य जितने कम होंगे, मनमुटाव के आशंकाएं उतनी ही कम होंगी. ऐसे हालातों में एकल परिवार सार्थक सिद्ध होते हैं.
उपरोक्त के आधार पर यह कहा जा सकता है कि परिवारों के टूटने-बनने में सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां भी समान रूप से उत्तरदायी होती हैं. यह कतई आवश्यक नहीं कि हर बदलते दौर में पारिवारिक संरचना एक समान रहे. इसीलिए परिवार चाहे छोटे हों या बड़े, हमेशा प्रयत्न यह रहना चाहिए कि आपसी प्रेम में कहीं भी कमी ना आए, क्योंकि आपके जीवन की शुरुआत से हर छोटी-बड़ी घटनाओं में केवल आपका परिवार ही एक मजबूत आधार प्रदान करता है जिसके बिना आपकी पहचान सीमित हो जाती है.