एकदा श्रीकण्ठः तेन सह प्रातः नववादने तस्य गृहम् अगच्छत्। तत्र कृष्णमूर्तिः तस्य माता पिता च स्वशक्त्या श्रीकण्ठस्य आतिथ्यम् अकुर्वन्। एतत् दृष्ट्वा श्रीकण्ठः अकथयत्- ‘‘मित्र! अहं भवतां सत्कारेण सन्तुष्टोऽस्मि। केवलम् इदमेव मम दुःखं यत् तव गृहे एकोऽपि भृत्यः नास्ति। मम सत्काराय भवतां बहु कष्टं जातम्।
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एक बार श्रीकण्ठ उसके मित्र कृष्णमुर्ति के साथ नौ बजे उसके
घर आया। कृष्णमूर्ति ने तथा उसके माता-पिता ने अपनी शक्ति के अनुसार श्रीकण्ठ का अतिथि सत्कार किया। यह देखकर श्रीकण्ठ कहने लगा - " मित्र ! में आप लोगों के सत्कर सत्कार से संतुष्ट हूँ। केवल यह ही मेरा दुख है कि तुम्हारे घर में एक भी नौकर नहीं हैं। मेरे सत्कार के लिए आप लोगों को बहुत कष्ट हुआ।
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