Hindi, asked by cnestofficial123, 1 month ago

एलबम कहानी के आधार पर लाला सदानंद और शादीराम के बीच का संवाद (Dialogue) लिखिए
if correct ill mark u brainliest
instructions: read the pdf and answer the question

Attachments:

Answers

Answered by karnkamal990
10

Answer:

पंडित शादीराम ने ठंडी साँस भरी और सोचने लगे-क्या यह ऋण कभी सिर से न उतरेगा?

वे निर्धन थे,परंतु दिल के बुरे न थे।वे चाहते थे कि चाहे जिस भी प्रकार हो,अपने यजमान लाला सदानंद का रुपया अदा कर दें।उनके लिए एक-एक पैसा मोहर के बराबर था।अपना पेट काटकर बचाते थे,परंतु जब चार पैसे इकट्ठे हो जाते,तो कोई ऐसा खर्च निकल आता कि सारा रुपया उड़ जाता।शादीराम के हृदय पर बर्छियाँ चल जाती थीं।उनका हाल वही होता था,जो उस डूबते हुए मनुष्य का होता है,जो हाथ-पाँव मारकर किनारे तक पहुँचे और किनारा टूट जाए।उस समय उसकी दशा कैसी करुणा-जनक,कैसी हृदय-बेधक होती है।वह प्रारब्ध को गालियाँ देने लगता है।यही दशा शादीराम की थी।

इसी प्रकार कई वर्ष बीत गए,शादीराम ने पैसा बचा-बचाकर अस्सी रूपये जोड़ लिए।उन्हें लाला सदानंद को पांच सौ रूपये देने थे।इन अस्सी रूपये की रकम से ऋण उतारने का समय निकट प्रतीत हुआ।आशा धोखा दे रही थी।एकाएक उनका छोटा लड़का बीमार हुआ और लगातार चार महीने बीमार रहा,पैसा-पैसा करके बचाये हुए रूपये दवा-दारू में उड़ गए।पंडित शादीराम ने सिर पीट लिया।अब चारों ओर फिर अंधकार था।उसमें प्रकाश की हल्की सी किरण भी दिखाई न देती थी।उन्होंने ठंडी साँस भरी और सोचने लगे-क्या यह ऋण कभी सिर से न उतरेगा?

लाला सदानंद अपने पुरोहित की विवशता जानते थे और न चाहते थे कि वह रूपये देने का प्रयत्न करें।उन्हें इस रकम की रत्ती भर भी परवाह न थी।उन्होंने इसके लिए कभी तगादा तक नहीं किया;न कभी शादीराम से इस विषय की बात छेड़ी।इस बात से वे इतना डरते थे मानों रूपये स्वयं उन्हीं को देने हों,परंतु शादीराम के हृदय में शांति न थी।प्रायः सोचा करते कि “ये कैसे भलेमानस हैं,जो अपनी रकम के बारे में मुझसे बात तक नहीं करते? खैर,ये कुछ नहीं करते सो ठीक है,परंतु इसका तात्पर्य यह थोड़े ही है कि मैं निश्चिन्त हो जाऊँ।”

उन्हें लाला सदानंद के सामने सिर उठाने का साहस न था।उन्हें ऋण के बोझ ने नीचे झुका दिया था।यदि लाला सदानंद ऐसी सज्जनता न दिखाते और शादीराम को बार-बार तगादा करके तंग करते ,तो उन्हें ऐसा मानसिक कष्ट न होता।हम अत्याचार का सामना सिर उठाकर कर सकते हैं,परंतु भलमनसी के सामने आँखें नहीं उठतीं।

एक दिन लाला सदानंद किसी काम से पंडित शादीराम के घर गए और उनकी अलमारी में से कई सौ बांग्ला,हिंदी,अंग्रेजी आदि भाषाओं की मासिक पत्रिकाएँ देखकर बोले-“यह क्या!”

पंडित शादीराम ने पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदते हुए उत्तर दिया-“पुरानी पत्रिकाएँ हैं।बड़े भाई को पढ़ने का बड़ा चाव था;वे प्रायः मँगवाते रहते थे।जब जीते थे तो किसी को हाथ न लगाने देते थे।अब इन्हें कीड़े खा रहे हैं।”

“रद्दी में क्यों नहीं बेच देते?”

“इनमें चित्र हैं।जब कभी बच्चे रोने लगते हैं तो एक साथ निकाल कर देता हूँ।इससे उनके आँसू थाम जाते हैं।”

लाला सदानंद ने आगे बढ़कर कहा-“दो-चार परचे दिखाओ तो?”

पंडित शादीराम ने कुछ परचे दिखाए।हर एक परचे में कई-कई सुन्दर और रंगीन चित्र थे।लाला सदानंद कुछ देर तक उलट-पुलटकर देखते रहे।सहसा उनके हृदय में एक विचित्र विचार उठा।चौंककर बोले-“पंडित जी!”

“कहिए'”

“ये चित्र कला-सौंदर्य के अति उत्तम नमूने हैं।अगर किसी शौकीन को पसंद आ जाएँ, तो हजार,दो हजार रुपये कमा लो।

पंडित शादीराम ने एक ठंडी साँस लेकर कहा-“ऐसे भाग्य होते ,तो यों धक्के न खाता फिरता।”

लाला सदानंद बोले-“एक काम करो।”

“क्या?”

“आज बैठकर इन पत्रिकाओं में जितनी अच्छी-अच्छी तसवीरें हैं सबको छाँटकर अलग कर लो।”

“बहुत अच्छा।”

“जब यह कर चुको तो मुझे बता देना।”

“आप क्या करेंगे?”

“मैं इनका अलबम बनाऊँगा और तुम्हारी ओर से विज्ञापन दे दूँगा।संभव है,यह विज्ञापन किसी शौकीन हाथ पड़ जाए,और तुम चार पैसे कमा लो।”

पंडित शादीराम को यह आशा न थी कि कोयलों में हीरा मिल जायेगा।घोर निराशा ने आशा के द्वार चारों ओर से बंद कर दिए थे।वे उन हतभाग्य मनुष्यों में से थे जो संसार में असफल और केवल असफल रहने के लिए उत्पन्न होते हैं।सोने को हाथ लगाते थे तो वह भी मिट्टी हो जाता था।उनकी ऐसी धारणा ही नहीं,पक्का विश्वास था कि यह प्रयत्न भी कभी सफल न होगा।परंतु लाला सदानन्द के आग्रह से दिन-भर बैठकर तस्वीरें 

Similar questions