Hindi, asked by mahimasuryawanshi330, 7 months ago

एस पद मे कबीर किसे सम्बोधित करते है तथा क्या ?



chapter - kabir ke pad

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Answered by aviralkachhal007
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जग-संसार। बौराना-पागल होना। साँच-सच। मारन-मारने। धावै-दौड़े। पतियाना-विश्वास करना। नेमी-नियमों का पालन करने वाला। धरमी-धर्म का पालन करने वाला। प्राप्त-सुबह। असनाना-स्नान करना। आतम-स्वयं। पखानहि-पत्थरों को, पत्थरों की मूर्तियों को। पीर औलिया-धर्म गुरु और संत ज्ञानी। कितेब-ग्रंथ। मुरीद-शिष्य। तदबीर-उपाय। डिंभ धरि-घमंड करके। गुमाना-घमंड। पाथर-पत्थर। पहिरे-पहने। छाप तिलक अनुमाना-माथे पर तिलक व छापा लगाया। साखी-दोहा, साक्षी। सब्दहि-वह मंत्र जो गुरु शिष्य को दीक्षा के अवसर पर देता है, पद। गावत-गाते। आतम खबरि-आत्मा का ज्ञान, आतम ज्ञान। मोहि-मुझे। तुर्क-मुसलमान। दोउ-दोनों। लरि-लड़ना। मुए-मरना। मर्म-रहस्य। काहू-किसी ने। मन्तर-गुप्त वाक्य बताना। महिमा-उच्चता। सिख्य-शिप्य। बूड़े-डूबे। अंतकाल-अंतिम समय। भर्म-संदेह। केतिक कहीं-कहाँ तक कहूँ। सहजै-सहज रूप से। समाना-लीन होना।

प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में उन्होंने धर्म के नाम पर हो रहे बाहय आडंबरों पर तीखा प्रहार किया है।

व्याख्या-कबीरदास सज्जनों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि देखो, यह संसार पागल हो गया है। जो व्यक्ति सच बातें बताता है, उसे यह मारने के लिए दौड़ता है तथा जो झूठ बोलता है, उस पर यह विश्वास कर लेता है। कवि हिंदुओं के बारे में बताता है कि ऐसे लोग बहुत हैं जो नियमों का पालन करते हैं तथा धर्म के अनुसार अनुष्ठान आदि करते हैं। ये प्रातः उठकर स्नान करते हैं। ये अपनी आत्मा को मारकर पत्थरों को पूजते हैं। वे आत्मचिंतन नहीं करते। इन्हें अपने ज्ञान पर घमंड है, परंतु उन्होंने कुछ भी ज्ञान प्राप्त नहीं किया है। मुसलमानों के विषय में कबीर बताते हैं कि उन्होंने ऐसे अनेक पीर, औलिया देखे हैं जो कुरान का नियमित पाठ करते हैं। वे अपने शिष्यों को तरह-तरह के उपाय बताते हैं जबकि ऐसे पाखंडी स्वयं खुदा के बारे में नहीं जानते हैं। वे ढोंगी योगियों पर भी चोट करते हैं जो आसन लगाकर अहंकार धारण किए बैठे हैं और उनके मन में बहुत घमंड भरा पड़ा है।

कबीरदास कहते हैं कि लोग पीपल, पत्थर को पूजने लगे हैं। वे तीर्थ-यात्रा आदि करके गर्व का अनुभव करते हैं। वे ईश्वर को भूल जाते हैं। कुछ लोग टोपी पहनते हैं, माला धारण करते हैं, माथे पर तिलक लगाते हैं तथा शरीर पर छापे बनाते हैं। वे साखी व शब्द को गाना भूल गए हैं तथा अपनी आत्मा के रहस्य को नहीं जानते हैं। इन लोगों को सांसारिक जीवन पर घमंड है। हिंदू कहते हैं कि उन्हें राम प्यारा है तो तुर्क रहीम को अपना बताते हैं। दोनों समूह ईश्वर की श्रेष्ठता के चक्कर में लड़कर मार जाते हैं, परंतु किसी ने भी ईश्वर की सत्ता के रहस्य को नहीं जाना।

समाज में पाखंडी गुरु घर-घर जाकर लोगों को मंत्र देते फिरते हैं। उन्हें सांसारिक माया का बहुत अभिमान है। ऐसे गुरु व शिष्य सब अज्ञान में डूबे हुए हैं। इन सबको अंतकाल में पछताना पड़ेगा। कबीरदास कहते हैं कि हे संतों, वे सब माया को सब कुछ मानते हैं तथा ईश्वर-भक्ति को भूल बैठे हैं। इन्हें कितना ही समझाओ, ये नहीं मानते हैं। सच यही है कि ईश्वर तो सहज साधना से मिल जाते हैं।

विशेष-

1. कवि ने धार्मिक आडंबरों पर करारी चोट की है।

2. उन्होंने पाखंडी धर्मगुरुओं को लताड़ लगाई है।

3. सधुक्कड़ी भाषा है।

4. अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।

5. चित्रात्मकता है।

7. कबीर का अक्खड़पन स्पष्ट है।

8. पद में गेयता व संगीतात्मकता है।

● अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

1. कबीर किसे संबोधित करते हैं तथा क्यों?

2. कवि संसार को पागल क्यों कहता है?

3. कवि ने हिंदुओं के किन आडंबरों पर चोट की है तथा मुसलमानों के किन पाखंडों पर व्यंग्य किया है?

4. अज्ञानी गुरुओं व शिष्यों की क्या गति होगी?

उत्तर-

1. कबीर दास जी संसार के विवेकी व सज्जन लोगों को संबोधित कर रहे हैं, क्योंकि वे संतों को धार्मिक पाखंडों के बारे में बताकर भक्ति के सहज मार्ग को बताना चाहते हैं।

2. कवि संसार को पागल कहता है। इसका कारण है कि संसार सच्ची बात कहने वाले को मारने के लिए दौड़ता है तथा झूठी बात कहने वाले पर विश्वास कर लेता है।

3. कबीर ने हिंदुओं के नित्य स्नान, धार्मिक अनुष्ठान, पीपल-पत्थर की पूजा, तिलक, छापे, तीर्थयात्रा आदि आडंबरों पर चोट की है। इसी तरह उन्होंने मुसलमानों के ईश्वर-प्राप्ति के उपाय, टोपी पहनना, पीर की पूजा, शब्द गाना आदि पाखंडों पर व्यंग्य किया है।

4. अज्ञानी गुरुओं व उनके शिष्यों को अंतकाल में पछताना पड़ता है, क्योंकि ज्ञान के अभाव में वे गलत मार्ग पर चलते हैं तथा अपना विनाश कर लेते हैं।

● काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न

हम तो एक एक करि जाना।

दोइ कहैं तिनहीं कों दोजग जिन नाहिन पहिचाना।

एकै पवन एक ही पानीं एके जोति समाना।

एकै खाक गढ़े सब भाड़े एकै कांहरा सना।

जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटे अगिनि न काटे कोई।

सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरे सरूपैं सोई।

माया देखि के जगत लुभाना काहे रे नर गरबाना।

निरर्भ भया कछू नहि ब्याएँ कहैं कबीर दिवाना।

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