Hindi, asked by Paul1111, 1 year ago

essay nadi ki aatma katha

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Answered by ria113
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जन्म– मैं नदी हूँ। मेरा जन्म पर्वतमालाओं की गोद से हुआ है। बचपन से ही मैं चंचल थी। एक स्थान पर टिक कर बैठना तो मुझे आता ही नहीं। निरन्तर चलते रहना, कभी धीरे धीरे और कभी तेजी से मेरा काम है। मैंने आगे बढ़ना सीखा है रूकना नहीं। कर्म में ही मेरा विश्वास रहा है। फल की इच्छा मैंने कभी नहीं की।

गृह त्याग- पर्वतमालाएँ मेरा घर हैं पर मैं सदा वहाँ कैसे रह सकती हूँ? भला लड़की कभी अपने माता पिता के घर सदा रहती है। उसे माता पिता का घर तो छोड़ना ही होता है।

मैं भी इस सच्चाई को जानती हूँ। इसलिए मैंने भी अपने पिता का घर छोड़ आगे बढ़ने का निश्चय कर लिया।

जब मैंने अपने पिता का घर छोड़ा तो सभी ने मुझे अपनाना चाहा। प्रकृति ने भी मेरा पूरा पूरा साथ दिया। मैं बड़े बड़े पत्थरों को तोड़ती, उन्हें धकेलती आगे बढ़ी। पेड़ों के पत्ते तक मुझ से आकर्षित हुए बिना नहीं रहे। पर्वतीय प्रदेश के लोगों की सरलता और निश्चतता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मैं भी उन्हीं के समान सरल और निश्छल बनी रही।

मार्ग में बड़े बड़े पत्थरों और चटृानों ने मेरा रास्ता रोकना चाहा। पर वे अपने उदेश्य में सफल नहीं हो पाए। मेरी धारा को रोकना  उनके लिए असंभव बन गया। मैं चीरती आगे बढ़ चली।

मैदानी भाग में प्रवेश– पहाड़ों को छोड़ मैं मैदानी भाग में पहुँची। यहाँ पहुँचते ही मुझे बचपन की याद आने लगी। पहाड़ी प्रदेश में घुटनों के बल सरक सरक कर आगे बढ़ती रही थीं, और अब मैदान में पहुँच कर सरपट भागती दिखाई देने लगी। मैंने बहुत से नगरों को हँसी दी है। बहुत से क्षेत्रों में हरियाली मेरे ही कारण हुई है।

खुशहाली का कारण– मैं ही समाज और देश की खुशहाली के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करती रही हूँ। मुझ पर बाँध बनाकर कर नहरें निकाली गईं। उनसे दूर दूर तक मेरा निर्मल जल ले जाया गया। यह जल पीने, कल कारखाने चलाने और खेतों को सींचने के काम में लाया गया।

मेरे पानी को बिजली पैदा करने के लिए काम में लाया गया। यह बिजली देश के कोने कोने से प्रकाश करने और रेडियो, टी.वी. आदि चलाने के लिए काम में लाई गई।

अहंकार शून्य-यह सब कुछ होते हुए भी मुझ में अहंकार का लेषमात्र भी नहीं है। मैं अपने प्राणों की एक एक बूंद समाज और प्राणि जगत के हित के लिए अर्पित कर देती हूँ। अपना सर्वस्व लुटा देती हूँ, इसका मुझे सन्तोष है। मुझे प्रसन्नता है कि मेरा अंग अंग समाज के हित में लगा है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ ही मेरे जीवन का मूल मन्त्र है। मैं इस भावना को अपने हदय में संजोए यात्रा पथ पर बढ़ती रहती हूँ।

उपसंहार– मेरा (नदी का) लक्ष्य तो प्रियतम समुद्र नदी की प्राप्ति है। इसे मैं कभी नहीं भूल पाई। प्रियतम के मिलन की भावना जागृत होते ही मेरी चाल में तेजी आ गई। प्रियतम के दर्शन कर मैं प्रसन्न हो उठी। मैं अपने प्रियतम की बांहों में समाकर उसी का रूप हो गई।

इस प्रकार अपने पिता के घर से प्रस्थान कर अपने प्रियतम सागर से मिलने तक की यात्रा मेरे लिए बहुत आनंददायक रही।


ria113: thanks
Paul1111: welcome
satyavirsingh: thanks
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