Essay on agar mai teacher hoti in 500 words
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hindi mai chahiye ya english mai??
Sorry I am boy so I will write it on agar Mai teacher hota .
यदि मै शिक्षक होता निबंध
शिक्षक होना सचमुच बहुत बड़ी बात हुआ करती है। शिक्षक की तुलना उस सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से भी कर सकते हैं। जैसे संसार के प्रत्येक प्राणी और पदार्थ को बनाना ब्रह्मा का कार्य है, उसी प्रकार उस सब बने हुए को संसार के व्यावहारिक ढाँचे में ढालना, व्यवहार योग्य बनाना, सजा-संवार कर प्रस्तुत करना वास्तव में शिक्षक का ही काम हुआ करता है। शिक्षक ही अपनी सुसाधित सदशिक्षा के प्रकाश से अज्ञान के अन्धेरे को दूर कर आदमी को ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया करता है। आदमी के मन-मस्तिष्क को एक नया आयाम देकर प्रगति और विकास की राह दिखाया और उस पर चलाया करता है या फिर ऐसा सब कुछ कर सकता है। लेकिन खेद के साथ स्वीकार करना और कहना पड़ता है के आज कि शिक्षकों में ऐसा कर पाने के गुण और शक्ति नहीं रह गए हैं। उनकी मनोवृत्ति आम व्यावसायियों और दुकानदारों जैसी हो गई है। ट्यूशन, कुंजियों आदि के चक्कर में पड़ कर, पास करने-कराने की गॉरण्टी दे-दिलाकर वे धन कमाने, सुख-सुविधा भोगी होने की राह पर चल निकले हैं। फलतः उनका गुरुत्व और शिक्षकत्व प्रायः दिखावा रह गया है, वास्तव में खण्डित हो चुका है। ऐसी वास्तविक स्थिति देखते-जानते हुए भी अनेकशः और रह-रहकर मेरे मन-मस्तिष्क में यह प्रश्न उठता ही रहता है कि यदि मैं शिक्षक होता, तो ?
यदि मैं शिक्षक होता, तो एक वाक्य में कहूँ तो हर प्रकार से शिक्षकत्व के गौरव और गरिमा को बनाए रखने का प्रयास करता। मैं विद्या, उसकी शिक्षा, उसकी आवश्यकता और महत्त्व को पहले तो स्वयं भली प्रकार से जानने और हृदयंगम करने का प्रयास करता; फिर उस प्रयास के आलोक में ही अपने पास शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा से आने वाले विद्यार्थियों को सही और उचित शिक्षा प्रदान करता। ऐसा करते समय मैं यह मान कर चलता और वह व्यवहार करता कि जैसा कबीर कह गए हैं;
“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढि काढ़े खोट। भीतर हाथ सहार दे, बहार बाहे चोट।
अर्थात् जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची और गीली मीटी को मोड़-तोड़ और कुशल हाथों से एक साँचे में ढालकर घड़ा बनाया करता है उसी प्रकार मै भी अपनी सुकुमार-मति से छात्रों का शिक्षा के द्वारा नव-निर्माण करता, उन्हें एक नये साँचे में ढालता। जैसे कुम्हार, मिट्टी से घडे का ढाँचा बना कर उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोंक कर उसमें पडे गर्त आदि को समतल बनाया करता है, उसी प्रकार मैं अपने छात्रों के भीतर यानि मन-मस्तिष्क में ज्ञान का सहारा देकर उनकी बाहरी बुराइयाँ भी दूर कर के हर प्रकार से सुडौल, जीवन का भरपूर आनन्द लेने के योग्य बना देता। लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि मैं शिक्षक नहीं हूँ और जो शिक्षक हैं, वे अपने कर्तव्य का इस प्रकार गुरुता के साथ पालन करना नहीं चाहते।
यदि मैं शिक्षक होता, तो सब को समझाता कि आज जिसे शिक्षा-प्रणाली कहा जा रहा है, वास्तव में शिक्षा प्रणाली है ही नहीं। वह तो मात्र साक्षर बनाने वाली प्रणाली है। अतः यदि हम देश के बच्चों, किशोरों, युवकों को सचमुच शिक्षित बनाना और देखना चाहते हैं, तो इस को बदलकर इसके स्थान पर कोई ऐसी सोची-समझी और युग की आवश्यकताएँ पूरी कर सकने के साथ-साथ मानवता की आवश्यकताएँ भी पूरी करने वाली शिक्षा-प्रणाली अपनानी होगी, जो वास्तव में शिक्षित कर सके। शिक्षक होने पर मैं सबको यह भी बताने-समझाने की कोशिश करता कि सच्ची शिक्षा का अर्थ कुछ पढ़ना-लिखना सीख कर कुछ डिग्रियाँ प्राप्त कर लेना ही नहीं हुआ करता। सच्ची शिक्षा तो वह होती है कि जो मन-मस्तिष्क और आत्मा में ज्ञान का प्रकाश भर दे। इस नई ऊर्जा का संचार कर व्यक्ति को हर प्रकार से योग्य, समझदार और कार्य-निपुण बनाने के साथ-साथ मानवीय कर्त्तव्यपरायणता से भी भर दे। जीवन में जीने की नई दृष्टि और उत्साह दे।
यदि मैं शिक्षक होता, तो शिक्षा पाने के इच्छुकों को बताता कि शरीर को स्वस्थ-सुन्दर और सब प्रकार से सक्षम बनाना भी आवश्यक है। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन-मस्तिष्क और आत्मा वाला व्यक्ति ही शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को पूर्ण कर पाने में समर्थ हो पाया करता है। शिक्षक होने पर मैं पढ़ने वालों को हर प्रकार से एक पूर्ण, अन्तः बाह्य प्रत्येक स्तर पर सशक्त-सम्पूर्ण व्यक्तित्व वाला मनुष्य बनाने का प्रयास करता, ट्यूशन्स, कुंजियों, गाइडों आदि का प्रचलन पूर्णतया प्रतिबन्धित करवा देता। किताबी शिक्षा पर बल न दे व्यावहारिक शिक्षा पर बल देतावह भी बन्द कक्षा-भवनों में नहीं; बल्कि प्रकृति के खुले-उजले वातावरण में पर काश! मैं शिक्षक होता- शिक्षक !
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