Essay on can corruption can be eradicted from our society?In hindi
Answers
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार और अपराध की प्रवृत्तियों ने हमारे समाज में व्यापक रूप से अपनी जड़ें फैला रखी हैं। विनोबा भावे के शब्दों में “भ्रष्टाचार तो शिष्टाचार हो गया है। जब सभी लोग ऐसा करने लगें तो यह भ्रष्टाचार नहीं शिष्टाचार हो जाता है। भ्रष्टाचार तभी तक है जब तक कुछ लोग उसे करें, लेकिन सब लोग उसे अपना लें तो वह शिष्टाचार हो जाता है।”
बात बिल्कुल ठीक है। भ्रष्टाचार ने व्यापक स्तर पर जन-जीवन को प्रभावित कर रखा है। नौकरशाही में, व्यापार में, समाज में, नेताओं में, राजनीति में, धर्म में यहाँ तक व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन में भी भ्रष्टाचार फैला हुआ है। अर्थात् विभिन्न क्षेत्रों में हमारा आचरण सचाई-ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता, न्याय आदि में अनुकूल न होकर बेईमानी, झूठ, स्वार्थ और अन्याय से प्रेरित होता है। इसे दूर कैसे किया जाय, यह एक अहम् समस्या है। क्योंकि जब तक जन जीवन से भ्रष्टाचार दूर न होगा तब तक हमारा विकास न हो सकेगा, प्रगति और उन्नति की सभी योजनायें अधूरी और निकम्मी रह जायेंगी।
हममें से बहुत से लोगों का मत है कि भ्रष्टाचार दूर करने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिएं। प्रभावशाली कानून बना कर ऐसे लोगों को कड़ी सजायें देनी चाहिएं। यह आवश्यक भी है। सरकारी नियन्त्रण से लोगों में भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियों को बहुत कुछ दबाया जा सकता है। डिक्टेटर प्रधान शासन पद्धति वाले देशों में ऐसा होता भी है और कुछ हद तक सफलता मिल जाती है, किन्तु इस बुराई को शासन पूर्णतया मिटा नहीं सकता। सर्वप्रथम तो सरकारी मशीनरी ही जब इससे प्रभावित हो तो कानून का कोई कारगर उपयोग नहीं हो पाता। इसके सिवा कानून बनने से पूर्व उससे बच निकलने के रास्ते ढूँढ़ लिये जाते हैं। हम देखते हैं कि कानून का सहारा लेकर दोषी व्यक्ति भी कई बार साफ बरी हो जाते हैं। दण्ड और सजा का भय भी लोगों को प्रभावित नहीं करता। आज कई अपराधों के लिए मृत्यु दण्ड निश्चित है फिर भी वे बढ़ते जा रहे हैं, घटते नहीं।
इस तरह का सरकारी प्रयत्न भ्रष्टाचार के निरोध का पूर्ण समाधान नहीं है। हाँ ये भी कुछ अंशों में इस समस्या के दूर करने में सहायक हो सकते हैं। वस्तुतः भ्रष्टाचार एक सामाजिक समस्या है। यह समाज के चरित्र और स्वभाव से संबंध रखती है। जब तक समाज का चरित्र उत्कृष्ट नहीं होगा स्वभाव उत्तम नहीं बनेगा, तब तक भ्रष्टाचार की जड़ नहीं मिट सकती। लोगों को चरित्र निर्माण की दिशा में प्रोत्साहन किया जाना चाहिए।
इसके लिए सर्वप्रथम समाज के अग्रगण्य नेता, बड़े आदमी, राज्याधिकारी, मन्त्री, धर्म गुरुओं को अपने आदर्श-चरित्र और सद्व्यवहार का उदाहरण जन-साधारण के समक्ष रखना चाहिए। किसी भी बात का समाज में प्रचार करने के लिए पहले उसे अपने जीवन में अपनाना आवश्यक है। समाज के अगुआ लोग जैसा आचरण करते हैं, उसका अनुकरण दूसरे लोग करते हैं। सामाजिक राजनैतिक, धार्मिक कार्यकर्ता और नेता लोग जब अपने प्रत्यक्ष आचरण और उदाहरण के द्वारा जनता को चरित्र निर्माण का मार्ग दिखायेंगे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब भ्रष्टाचार, अपराध की प्रवृत्तियाँ हमारे समाज से दूर हट जायेंगी। महात्मा गाँधी ने कुछ समय पूर्व यही उदाहरण प्रस्तुत किया था। उन्होंने न तो कानून बनाने की माँग की, न दोषी को सजा देने की, न समाज के दोषों को गिनाया। उन्होंने जैसा समाज बनाना चाहा उसके अनुसार पहले स्वयं को बनाया। यही कारण था कि देखते-देखते लोगों में अपूर्व त्याग, सेवा, परमार्थ की भावना पैदा हो गई थी उस समय। गाँधीजी के नेतृत्व में असंख्यों भारतवासियों ने अपने हितों का त्याग करके जन-कल्याण के लिए अपना सहर्ष उत्सर्ग किया था। जब तक समाज के मूर्धन्य नेता इस आदर्श का अवलंबन नहीं करने लगे तब तक साधारण जनता कैसे इन आदर्शों को अपनायेगी। जब मंत्री, नेता, धर्मगुरु, समाज सेवक अपना स्वार्थ सिद्ध करने, अपनी कोठियाँ, मिलें बनाने में लगे रहेंगे, अपने लिए सम्पत्ति एकत्रित करने में जुटे रहेंगे तब तक जन-साधारण क्यों नहीं इसी मार्ग का अनुकरण करेगा? आज समाज से भ्रष्टाचार के दूर होने में यह एक बहुत बड़ी बाधा है।
धन्यवाद!!!
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार और अपराध की प्रवृत्तियों ने हमारे समाज में व्यापक रूप से अपनी जड़ें फैला रखी हैं। विनोबा भावे के शब्दों में “भ्रष्टाचार तो शिष्टाचार हो गया है। जब सभी लोग ऐसा करने लगें तो यह भ्रष्टाचार नहीं शिष्टाचार हो जाता है। भ्रष्टाचार तभी तक है जब तक कुछ लोग उसे करें, लेकिन सब लोग उसे अपना लें तो वह शिष्टाचार हो जाता है।”
बात बिल्कुल ठीक है। भ्रष्टाचार ने व्यापक स्तर पर जन-जीवन को प्रभावित कर रखा है। नौकरशाही में, व्यापार में, समाज में, नेताओं में, राजनीति में, धर्म में यहाँ तक व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन में भी भ्रष्टाचार फैला हुआ है। अर्थात् विभिन्न क्षेत्रों में हमारा आचरण सचाई-ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता, न्याय आदि में अनुकूल न होकर बेईमानी, झूठ, स्वार्थ और अन्याय से प्रेरित होता है। इसे दूर कैसे किया जाय, यह एक अहम् समस्या है। क्योंकि जब तक जन जीवन से भ्रष्टाचार दूर न होगा तब तक हमारा विकास न हो सकेगा, प्रगति और उन्नति की सभी योजनायें अधूरी और निकम्मी रह जायेंगी।
हममें से बहुत से लोगों का मत है कि भ्रष्टाचार दूर करने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिएं। प्रभावशाली कानून बना कर ऐसे लोगों को कड़ी सजायें देनी चाहिएं। यह आवश्यक भी है। सरकारी नियन्त्रण से लोगों में भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियों को बहुत कुछ दबाया जा सकता है। डिक्टेटर प्रधान शासन पद्धति वाले देशों में ऐसा होता भी है और कुछ हद तक सफलता मिल जाती है, किन्तु इस बुराई को शासन पूर्णतया मिटा नहीं सकता। सर्वप्रथम तो सरकारी मशीनरी ही जब इससे प्रभावित हो तो कानून का कोई कारगर उपयोग नहीं हो पाता। इसके सिवा कानून बनने से पूर्व उससे बच निकलने के रास्ते ढूँढ़ लिये जाते हैं। हम देखते हैं कि कानून का सहारा लेकर दोषी व्यक्ति भी कई बार साफ बरी हो जाते हैं। दण्ड और सजा का भय भी लोगों को प्रभावित नहीं करता। आज कई अपराधों के लिए मृत्यु दण्ड निश्चित है फिर भी वे बढ़ते जा रहे हैं, घटते नहीं।
इस तरह का सरकारी प्रयत्न भ्रष्टाचार के निरोध का पूर्ण समाधान नहीं है। हाँ ये भी कुछ अंशों में इस समस्या के दूर करने में सहायक हो सकते हैं। वस्तुतः भ्रष्टाचार एक सामाजिक समस्या है। यह समाज के चरित्र और स्वभाव से संबंध रखती है। जब तक समाज का चरित्र उत्कृष्ट नहीं होगा स्वभाव उत्तम नहीं बनेगा, तब तक भ्रष्टाचार की जड़ नहीं मिट सकती। लोगों को चरित्र निर्माण की दिशा में प्रोत्साहन किया जाना चाहिए।
इसके लिए सर्वप्रथम समाज के अग्रगण्य नेता, बड़े आदमी, राज्याधिकारी, मन्त्री, धर्म गुरुओं को अपने आदर्श-चरित्र और सद्व्यवहार का उदाहरण जन-साधारण के समक्ष रखना चाहिए। किसी भी बात का समाज में प्रचार करने के लिए पहले उसे अपने जीवन में अपनाना आवश्यक है। समाज के अगुआ लोग जैसा आचरण करते हैं, उसका अनुकरण दूसरे लोग करते हैं। सामाजिक राजनैतिक, धार्मिक कार्यकर्ता और नेता लोग जब अपने प्रत्यक्ष आचरण और उदाहरण के द्वारा जनता को चरित्र निर्माण का मार्ग दिखायेंगे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब भ्रष्टाचार, अपराध की प्रवृत्तियाँ हमारे समाज से दूर हट जायेंगी। महात्मा गाँधी ने कुछ समय पूर्व यही उदाहरण प्रस्तुत किया था। उन्होंने न तो कानून बनाने की माँग की, न दोषी को सजा देने की, न समाज के दोषों को गिनाया। उन्होंने जैसा समाज बनाना चाहा उसके अनुसार पहले स्वयं को बनाया। यही कारण था कि देखते-देखते लोगों में अपूर्व त्याग, सेवा, परमार्थ की भावना पैदा हो गई थी उस समय। गाँधीजी के नेतृत्व में असंख्यों भारतवासियों ने अपने हितों का त्याग करके जन-कल्याण के लिए अपना सहर्ष उत्सर्ग किया था। जब तक समाज के मूर्धन्य नेता इस आदर्श का अवलंबन नहीं करने लगे तब तक साधारण जनता कैसे इन आदर्शों को अपनायेगी। जब मंत्री, नेता, धर्मगुरु, समाज सेवक अपना स्वार्थ सिद्ध करने, अपनी कोठियाँ, मिलें बनाने में लगे रहेंगे, अपने लिए सम्पत्ति एकत्रित करने में जुटे रहेंगे तब तक जन-साधारण क्यों नहीं इसी मार्ग का अनुकरण करेगा? आज समाज से भ्रष्टाचार के दूर होने में यह एक बहुत बड़ी बाधा है।
धन्यवाद!!!