essay on foreign traffic in hindi
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शहरी भारत की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है, लेकिन उस अनुपात में शहर की आधारभूत संरचना का विकास नहीं हुआ है, जिसकी वजह से शहरों में ट्रैफिक एक बड़ी समस्या बन कर उभरा है। बता रहे हैं अभिजीत पाठक
पिछले दो दशक में शहरों का जबरदस्त विकास हुआ है। महानगरों की आबादी भी बहुत तेजी से बढ़ी है। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टिंग फर्म मैकिंजे की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2008 में शहरी जनसंख्या लगभग 34 करोड़ थी, जो 2030 तक बढ़ कर 59 करोड़ पहुंच जाएगी। सिर्फ दिल्ली की बात करें तो यहां की जनसंख्या पिछले एक दशक में 21 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है। छोटे शहरों में भी यह वृद्धि कम आश्चर्यजनक नहीं है। उदाहरण स्वरूप अहमदाबाद की आबादी 2001 से 2011 के बीच 40 फीसदी से भी ज्यादा बढ़ी है। शहरों में जिस रफ्तार से जनसंख्या बढ़ रही है, उस रफ्तार से वहां की आधारभूत संरचना का विकास नहीं हुआ है। आबादी के लिहाज से इन शहरी केंद्रों में आवास, मार्ग, बिजली और पानी की बेहतर सुविधा के लिए बहुत कुछ किया जाना शेष है। इनमें से रोजमर्रा की जिंदगी में सबसे बड़ी समस्या बन कर उभरा है ट्रैफिक।
एचटी-जीएफके मोड के एक्सक्लूसिव सर्वेक्षण के अनुसार, 44 प्रतिशत उत्तरदाता यातायात की खराब व्यवस्था के लिए सार्वजनिक परिवहन की कमी और खराब ट्रैफिक व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं। 17 फीसदी लोगों ने वायु प्रदूषण की भी बात कही, जिसकी एक प्रमुख वजह यातायात है।
एक ऑटो पार्ट्स कम्पनी में एग्जीक्यूटिव 26 साल की ईशा पंडिता कहती हैं कि दिल्ली की सड़कों पर गाड़ी चलाना असंभव है। हर जगह हमेशा जाम मिलता है। हालांकि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरू जैसे महानगरों में मेट्रो ट्रेन के जरिये सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन बाकी शहरों की बात करें तो सार्वजनिक परिवहन की हालत अच्छी नहीं है।
आमदनी बढ़ने की वजह से अहमदाबाद, पुणे, हैदराबाद जैसे शहरों में कारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, जिसकी वजह से गलियां तक जाम रहने लगी हैं। इन छोटे शहरों के 43 फीसदी उत्तरदाता यह कहते हैं कि ट्रैफिक में उनका एक घंटे से भी ज्यादा समय बरबाद हो जाता है, जबकि महानगरों के 18 फीसदी लोग ऐसा मानते हैं।
उत्तरदाताओं का मानना है कि यातायात संकट से निकलने के लिए शहरों का नवीकरण करना अति महत्वपूर्ण है। सर्वे में यह बात उभर कर सामने आई है कि आधुनिक ट्रैफिक सिस्टम, सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में सुधार, बस के लिए कॉरिडोर और मेट्रो सेवा इसके बेहतर समाधान हो सकते हैं। लेकिन 38 फीसदी उत्तरदाताओं का मानना है कि इसका समाधान निजी कार मालिकों पर दंडात्मक उपायों में निहित है। उनके अहम सुझावों में भीड़-भाड़ वाले इलाके में गाड़ी खड़ी करने पर जुर्माना, निजी कारों का मालिकाना हक नियंत्रित करना और तेल के दामों में वृद्धि करना भी शामिल है।
यातायात में बरबाद होने वाले समय और शहरी जीवन की आपाधापी का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि बड़े शहरों में लोग अब परिजनों, पड़ोसियों और दोस्तों के साथ कम वक्त बिता रहे हैं। काम और जिम्मेदारियों के दबाव में उनको न अपने परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका मिल रहा है और न ही निजी काम निपटाने का। 37 प्रतिशत लोगों का मानना है कि शहरों में सार्थक सामुदायिक जीवन की कमी है। वहीं छोटे शहरों के 64 फीसदी लोग अपने शहर की सुविधाओं जैसे सांस्कृतिक केंद्र, पार्क, क्लब आदि से खुश हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों के 21 फीसदी लोगों का मानना है कि वह अपने परिवार के साथ पर्याप्त समय नहीं बिता पाते, जबकि छोटे शहरों के सिर्फ छह फीसदी लोग ऐसा मानते हैं।
(साथ में स्वाति कुंद्रा)
hope it will help you.
पिछले दो दशक में शहरों का जबरदस्त विकास हुआ है। महानगरों की आबादी भी बहुत तेजी से बढ़ी है। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टिंग फर्म मैकिंजे की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2008 में शहरी जनसंख्या लगभग 34 करोड़ थी, जो 2030 तक बढ़ कर 59 करोड़ पहुंच जाएगी। सिर्फ दिल्ली की बात करें तो यहां की जनसंख्या पिछले एक दशक में 21 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है। छोटे शहरों में भी यह वृद्धि कम आश्चर्यजनक नहीं है। उदाहरण स्वरूप अहमदाबाद की आबादी 2001 से 2011 के बीच 40 फीसदी से भी ज्यादा बढ़ी है। शहरों में जिस रफ्तार से जनसंख्या बढ़ रही है, उस रफ्तार से वहां की आधारभूत संरचना का विकास नहीं हुआ है। आबादी के लिहाज से इन शहरी केंद्रों में आवास, मार्ग, बिजली और पानी की बेहतर सुविधा के लिए बहुत कुछ किया जाना शेष है। इनमें से रोजमर्रा की जिंदगी में सबसे बड़ी समस्या बन कर उभरा है ट्रैफिक।
एचटी-जीएफके मोड के एक्सक्लूसिव सर्वेक्षण के अनुसार, 44 प्रतिशत उत्तरदाता यातायात की खराब व्यवस्था के लिए सार्वजनिक परिवहन की कमी और खराब ट्रैफिक व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं। 17 फीसदी लोगों ने वायु प्रदूषण की भी बात कही, जिसकी एक प्रमुख वजह यातायात है।
एक ऑटो पार्ट्स कम्पनी में एग्जीक्यूटिव 26 साल की ईशा पंडिता कहती हैं कि दिल्ली की सड़कों पर गाड़ी चलाना असंभव है। हर जगह हमेशा जाम मिलता है। हालांकि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरू जैसे महानगरों में मेट्रो ट्रेन के जरिये सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन बाकी शहरों की बात करें तो सार्वजनिक परिवहन की हालत अच्छी नहीं है।
आमदनी बढ़ने की वजह से अहमदाबाद, पुणे, हैदराबाद जैसे शहरों में कारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, जिसकी वजह से गलियां तक जाम रहने लगी हैं। इन छोटे शहरों के 43 फीसदी उत्तरदाता यह कहते हैं कि ट्रैफिक में उनका एक घंटे से भी ज्यादा समय बरबाद हो जाता है, जबकि महानगरों के 18 फीसदी लोग ऐसा मानते हैं।
उत्तरदाताओं का मानना है कि यातायात संकट से निकलने के लिए शहरों का नवीकरण करना अति महत्वपूर्ण है। सर्वे में यह बात उभर कर सामने आई है कि आधुनिक ट्रैफिक सिस्टम, सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में सुधार, बस के लिए कॉरिडोर और मेट्रो सेवा इसके बेहतर समाधान हो सकते हैं। लेकिन 38 फीसदी उत्तरदाताओं का मानना है कि इसका समाधान निजी कार मालिकों पर दंडात्मक उपायों में निहित है। उनके अहम सुझावों में भीड़-भाड़ वाले इलाके में गाड़ी खड़ी करने पर जुर्माना, निजी कारों का मालिकाना हक नियंत्रित करना और तेल के दामों में वृद्धि करना भी शामिल है।
यातायात में बरबाद होने वाले समय और शहरी जीवन की आपाधापी का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि बड़े शहरों में लोग अब परिजनों, पड़ोसियों और दोस्तों के साथ कम वक्त बिता रहे हैं। काम और जिम्मेदारियों के दबाव में उनको न अपने परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका मिल रहा है और न ही निजी काम निपटाने का। 37 प्रतिशत लोगों का मानना है कि शहरों में सार्थक सामुदायिक जीवन की कमी है। वहीं छोटे शहरों के 64 फीसदी लोग अपने शहर की सुविधाओं जैसे सांस्कृतिक केंद्र, पार्क, क्लब आदि से खुश हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों के 21 फीसदी लोगों का मानना है कि वह अपने परिवार के साथ पर्याप्त समय नहीं बिता पाते, जबकि छोटे शहरों के सिर्फ छह फीसदी लोग ऐसा मानते हैं।
(साथ में स्वाति कुंद्रा)
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Nishant722:
pls mark me as brainliest
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