Hindi, asked by leonkrish23082003, 11 months ago

Essay on Harihar kaka ki samasya in hindi

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Answered by shishir303
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                           हरिहर काका की समस्या

हरिहर काका एक बुजुर्ग व्यक्ति थे। वह निसंतान थे तथा उनकी पत्नी का भी देहांत हो गया था। वह अपने भाइयों के साथ रहते थे। भाइयों के अपने-अपने परिवार थे। भाई लोग अपने परिवार में व्यस्त रहते थे। हरिहर काका की तरफ कोई ध्यान नहीं देता था। हालांकि हरिहर काका के नाम पर खेत थे। इस कारण कभी-कभी भाई लोग उनकी थोड़ी बहुत खातिरदारी कर दिया करते थे। लेकिन धीरे-धीरे भाई उनकी उपेक्षा करने लगे। ऐसे में हरिहर काका एक दिन भड़क गये और नाराज होकर घर से चले गये। उनकी इसी नाराजगी का फायदा कर गांव के ढोंगी महंत उनकी जमीन हड़पने की साजिश करने लगे और हरिहर काका को बहलाने-फुसलाने लगे। भाईयों को भनक लगी तो वो भी सचेत हो गये। दोनों तरफ से संघर्ष शुरु हो गया। लड़ाई-झगड़ा, मारृकाट आदि मच गयी। पुलिस तक की नौबत आ गयी। हरिहर काका इन सब के बीच पिस गये।

हरिहर काका की समस्या यह थी कि वह अपनी उपेक्षा नही सह पा रहे थे। वह जीवन की संध्या बेला में पहुंच चुके एक वृद्ध व्यक्ति थे और इस आयु में लोग अपने परिवारजनों से आत्मीयता और स्नेह की अपेक्षा रखते हैं ताकि जीवन के शेष दिन शांति पूर्वक गुजर जायें। वह अपनी देखभाल चाहते थे। वह चाहते थे कि सभी लोग उनका ध्यान रखें। जबकि इस स्वार्थी समाज में सब केवल अपने स्वार्थ के लिए ही उनके पीछे पड़े थे। वो चाहे उनके परिवार के लोग हों या बाहर के लोग। सब उनकी जमीन हड़पना चाहते थे। उन सब का अपनापन दिखावटी और लालच से भरा था। यही बात हरिहर काका के मन को व्यथित कर देती थी।

Answered by kirtisingh01
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पद्मा मिश्रा की कहानी - हरिहर काका

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कहानी--

हरिहर काका

--पद्मा मिश्रा

हरिहर काका हमारे गाँव के बेहद सम्मानित बुजुर्ग तो थे, सारे धार्मिक कर्मकांडों तथा रीति नीति से चलने वाले कट्टर ब्राह्मण भी थे ....मजाल जो सुबह उठ कर सूर्य नमस्कार और प्रातः स्नान के मन्त्रों से लेकर संध्योप्सना तक कुछ भी छूट जाये !.पूर्ण शाकाहारी थे अतः अपना भोजन खुद ही पकाते थे ...रोज एक नई हांडी प्रयोग में लाते और भोजन पका लेने के बाद उसे फोड़ देते थे ,भोजन करते या बनाते समय यदि कोई दूसरा व्यक्ति वहाँ आ धमके तो अशुद्ध . हुआ मान कर उठ जाते थे , सब कुछ अधूरा छोड़ कर ..

उनके पास पीतल का एक ही लोटा था ,जिसे वे खूब धो माँज कर चमका कर रखते थे .एक दिन कुँए पर स्नान करते समय वही लोटा कुँए में गिर गया .! अब लोटा क्या गिरा .पंडित हरिहर पाठक के तो मानो धर्म पर ही कुठाराघात हो गया . .उनकी बढ़ती हुई बेचैनी और व्याकुलता देख कर एक लड़के ने हिम्मत की और लोटा कुँए से बाहर निकाल देने की पेशकश की ...यह तो बड़ा दुस्साहस ही किया था उसने ,परन्तु हरिहर काका के सामने यह बड़ी समस्या थी अतः उन्होंने लोटे को किसी अन्य के द्वारा छू लेने पर अपवित्र हो जाने की परवाह किये बिना उसे बीस रूपये का नया कड़कड़ी नोट देने का लालच दिया और लोटा के लिए मना लिया,..तब जाकर वह कुँए में उतरा .....तब तक काफी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी वैसे भी गांवों में मनोरंजन का कोई अन्य साधन न होने से ऐसी ही चुहल भरी घटनाएँ ही लोगों के मनोरंजन का साधन बन जाती हैं,..भीड़ बढ़ती जा रही थी ,धीरे धीरे लोग भी उनकी बेचैनी का फायदा उठाते हुए चुस्कियां लेने लगे ----''अरे काका .आपने तो बहुत ज्यादा रूपये देने का वादा कर दिया ...पानी तो कुँए में है ही नहीं ,मैं तो दस रूपये में ही निकाल देता ''

तभी किसी लड़के कहा --काका तो बड़े पूजा पाठ वाले हैं ,किसके घर में उन्होंने जाप .दुर्गा पाठ या पूजा नहीं करवाई ?बाह्मण हैं -पूज्य हैं ..लोटा निकालने के कोई पैसे लेगा ?

ये सारी बातें सुन सुन कर काका का तनाव घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा था,--उनका प्यारा लोटा ही उनका पुत्र,पिता .या पत्नी या साथी उनके कई रिश्तों सा प्यारा धन था ..क्योंकि उस अभावग्रस्तता के बीच पीतल का वह लोटा उनकी निजी बहुमूल्य सम्पत्ति ले सामान कीमती था ....स्नान करते ,भोजन बनाते ,या पूजा करते समय उसकी उपयोगिता कुछ बढ़ जाती थी ,.यदि भोजन न बनाने का मन हुआ तो उसी लोटे में दो मुट्ठी सत्तू घोल कर पी लिया करते थे,स्नान के समय उसी में जल भर कर ''हर गंगे .हर गंगे ''कहते हुए जब शारीर पर पानी उंडेलते तो आधा पानी शरीर पर और आधा पीछे गिरता था .पूजा आदि के समय वही लोटा आम्र पल्लवों और हल्दी कुमकुम के स्वस्तिक चिह्न से सुशोभित हो कोई दैवीय वस्तु ही नजर आता था ..........तात्पर्य यह कि उनके वीतरागी जीवन में वह लोटा उनका परम प्रिय रिश्तेदार -अभिन्न मित्र था .जिसके खो जाने पर उनका दुखी होना स्वाभाविक था .यदि यों कहा जाय कि वह लोटा और काका एक दुसरे के पर्याय बन गए थे ..तो अतिशयोक्ति न होगी .ऐसी महत्वपूर्ण वस्तु का खो जाना उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं था ----उधर काका के लोटे का कुँए से निकले जाने का दृश्य भी कुछ कम रोचक नहीं था ...जहाँ कभी उनके कुँए से पानी तो दूर कोई पैर भी नहीं रख सकता था ....वहीँ .आज न जाने कितने लोग कुँए की जगत पर चढ़ कर लोटे के बाहर आने के बिहंगम दृश्य को देख रहे थे ....कोई कोई तो व्यंग्य भी करता जा रहा था ----''लोटे को तो अछूत ने छू दिया है ..अब काका पानी कैसे पियेंगे ?''

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