History, asked by hmithravgds5643, 1 year ago

Essay on india asean relationship in hindi

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Answered by janvi47
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पूर्वी एशिया से जुड़ी रिश्तों की डोर पर निबंध | Essay on India’s Relationship with East Asia in Hindi!

भारत के पूर्वी एशिया से गहरे ऐतिहासिक और सारकृतिक संबंध रहे हैं । प्राचीन काल में कई भारतीय सम्राटों ने दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भारत की संस्कृति का प्रचार किया । बौद्ध धर्म भी सम्पर्क का एक माध्यम बना । ये संबंध अठारहवीं शताब्दी तक रहे, लेकिन ब्रिटेन के आधिपत्य में आने के बाद अंतर्राष्ट्रीय जगत् में भारत एक स्वतंत्र खिलाडी नहीं रहा ।

आजादी के बाद भारत ने फिर से पूरब की ओर देखने का प्रयास किया और नई दिल्ली में अप्रैल 1947 में ‘एशियाई बंधुत्व’ कायम करने की इन आरम्भिक कोशिशों की परिणति ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ जैसे नारों और बांडुंग सम्मेलन व गुटनिरपेक्ष आदोलन के रूप में सामने आई, लेकिन चीन के साथ 1962 के युद्ध और शीतयुद्ध कालीन घटनाओं ने भारत को एक बार फिर पूरब से दूर कर दिया ।

जानकार मानते हैं कि पिछली शताब्दी में कई भारतीय इतिहासकारों ने नये साक्ष्यों के आधार पर दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों को भारत के ‘सांस्कृतिक उपनिवेश’ के रूप में पेश करके उन देशों में गलत संदेश दिया, क्योंकि कुछ ही समय पहले औपनिवेशिक गुलामी से आजाद हुए इन देशों में राष्ट्रवादी भावनाएं उफान पर थीं ।

भारत की पूर्वोम्मुखी नीति का वर्तमान स्वरूप 1992 में सामने आया जब शीतयुद्ध की समाप्ति हो चुकी थी और भारत आर्थिक उदारीकरण का मार्ग अपना चुका था । इस बार व्यापार और वाणिज्य संबंध का मुख्य आधार बने ।

वर्तमान सदी भारत और चीन के उत्कर्ष की मानी जा रही है । जापान और चीन के बाद भारत एशिया की सबसे बडी अर्थव्यवस्था है । गौरतलब है कि पूर्वोम्मुखी नीति का अनुसरण करते हुए भारत पूर्वी एशिया के तकरीबन सभी आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा मंचों से जुड़ चुका है । चाहे वह आसियान हो या फिर ईस्ट एशियन समिट, भारत, पूर्वी एशिया की सियासत का अहम खिलाड़ी बन चुका है ।

अगर चीन की बात की जाये तो शुरू में वह आसियान को अमेरिका का पिछलग्गू मानता था, लेकिन शीतयुद्ध की समाप्ति और जबरदस्त आर्थिक प्रगति ने चीन के दृष्टिकोण में बदलाव किया । चीन का व्यापार आसियान देशों से बढ़ता चला गया ।

2005 में हुई पहली ईस्ट एशियन समिट में भारत, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड को भी शामिल कर लिया गया, जिसके पक्ष में चीन बिल्कुल नहीं था, लेकिन अमेरिका को ईएएस से बाहर रखने में चीन सफल रहा । जापान, इंडोनेशिया और सिंगापुर ने भारत को ईएएस से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई ।






यही नहीं, चीन के नेता चाहते थे कि पहला सम्मेलन बीजिंग में हो, लेकिन यह कुआलालम्पुर में हुआ । अभी भी यह बहस खत्म नहीं हुई कि ईएएस को कौन संचालित करेगा? चीन और मलेशिया यह राय रखते हैं कि ईएएस और आसियान प्लस थ्री दोनों का सह अस्तित्व सम्भव है, लेकिन ईएएस की कमान आसियान प्लस थ्री के हाथ में होनी चाहिए । जापान, इंडोनेशिया और सिंगापुर यह मानते है कि क्षेत्रीय सहयोग ईएएस के माध्यम से ही होना चाहिए ।

ऊर्जा, सुरक्षा, समुद्री डकैती का खतरा कम करने और कट्‌टरपंथी जिहादी विचारधारा को बढने से रोकने की इच्छा भी भारत को पूरब के देशों के नजदीक ला रही है । जिस तरह क्षेत्रीय एकीकरण के जरिए चीन की मंशा अमेरिका, जापान और भारत के प्रभाव को रोकने की है उसी तरह ईएएस का मुख्य मकसद चीन की महत्त्वाकांक्षाओं पर लगाम करना है ।

एशिया को चीन केंद्रित होने से रोकने में ईएएस कहा तक कामयाब हो पाएगी यह तो समय ही बताएगा, लेकिन पूर्वी एशिया से अपने सम्पर्क बढ़ाने के लिए भारत को सौम्य शक्ति राजनय (साँफ्ट पावर डिप्लोमेसी) या सारकृतिक राजनय का सहारा भी लेना होगा । अमेरिकी विचारक जॉसेफ न्ये जूनियर ने सर्वप्रथम 1990 में ‘साँफ्ट पावर’ शब्द का प्रयोग किया था । इसके बाद तो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में यह विचारधारा काफी प्रचलित हो गयी । भारत ने इस दिशा में पहल भी कर दी है ।

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में भारत ने जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और चीन को भी शामिल किया है । पिछले साल नालंदा में विश्वविद्यालय बनाने के विचार ने सिंगापुर में जोर पकड़ा । वैसे, जापान तो विश्वविद्यालय बनाने के लिए 100 मिलियन डॉलर विनियोग करने पर सहमत भी हो गया है । गौरतलब है कि जापान, भारत से संबंध मजबूत करने की लगातार कोशिश कर रहा है । चीन के प्रभाव का सामना करने के लिए जापान ने ईएएस में भारत को प्रवेश दिलाने में अहम भूमिका अदा की थी ।

गौरतलब है कि भारत एशिया की महान सभ्यता होने के साथ ही यहां की विरासत का अटूट हिस्सा है । सिंगापुर के प्रयासों से एक बार फिर भारत के पास पूर्वी एशिया के देशों में सांस्कृतिक संबंध पुनजीर्वित करने का मौका हाथ लगा है । भारतीय उपमहाद्वीप और पूर्वी एशियाई देशों की संस्कृति के साझे पहलुओं को ढूंढने की कोशिश में भारत को यह ध्यान भी रखना होगा कि इसमें सांस्कृतिक श्रेष्ठता प्रदर्शित करने या प्रभुत्व जमाने की भावना नहीं हो ।

सांस्कृतिक पहलू पर ध्यान देने का मतलब सामरिक हितों को त्यागना नहीं है, बल्कि इसके जरिये भारत पूर्वी एशिया में राजनीतिक प्रभाव बढाने के अलावा व्यापार को भी बढावा दे सकता है । फिलहाल चीन-आसियान व्यापार, भारत-आसियान व्यापार से सात गुना ज्यादा हैं- अगर दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से बेहतर सडक रेल और जलमार्गीय सम्पर्क विकसित नहीं हुआ, तो 2015 तक दोनों पक्षों में व्यापार 100 बिलियन डॉलर तक नहीं पहुंच पायेगा । पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ प्रगाढ़ व्यापारिक संबंधों के साथ ही सांस्कृतिक विरासत ढूंढने की कोशिश ही एशिया को चीन केन्द्रित होने से रोक सकती है ।

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