essay on जो परिर्वतन में दूसरों से उम्मीद करती हूँ, वह शुरुआत मुझसे हो।
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परिवर्तन प्रकृति का नियम है और सृष्टि की नवीनता के लिये यह बेहद ज़रूरी भी है। कुछ परिवर्तन शाश्वत होते हैं जिन पर चाहकर भी हमारा वश नहीं चल सकता जैसे कि मौसम का बदलना, बारिश का होना न होना, सूरज का उगना और ढल जाना तो कुछ परिवर्तन बेहद मानवीय किस्म के होते हैं जिन्हें मानव चाहकर बदल सकता है। यह उसके वश में होता है जिसमें उसके व्यक्तिगत स्वभाव से लेकर तमाम नवीन आविष्कार व भौतिक परिवर्तन शामिल हैं।
यह मानवीय प्रवृत्ति है कि हम अपनी जिम्मेदारियों और कर्त्तव्यों से तो बचना चाहते हैं परंतु अधिकार सुख का भरपूर लाभ उठाना चाहते हैं। हम अपनी उपलब्धियों का सेहरा तो खुद के सर बड़े गर्व से बांधते हैं परंतु गलतियों का ठीकरा दूसरों पर ही फोड़ते हैं। कहा भी गया है कि ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे।’ वर्तमान की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में इंसान दिन-ब-दिन स्वार्थी होता जा रहा है।
हम यह तो चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारे हिसाब से बदल जाएं परन्तु हम खुद को नहीं बदलते। हम दूसरे से इज़्ज़त, स्वागत और प्यार तथा वफादारी तो पूरी मात्रा में चाहते हैं परन्तु खुद को उनकी अपेक्षाओं पर कितना खरा साबित कर रहे हैं इस बात का मूल्यांकन कभी नहीं करते हैं।
भला जब तक हम दूसरों को इज़्ज़त और प्यार नहीं देंगे हम उनसे कैसे इसी की उम्मीद कर सकते हैं। हम मंचों पर बडी-बडी बातें तो करते हैं परन्तु उन बातों को अपने दैनिक जीवन में अमल में नहीं लाते हैं। कई बार उपरोक्त पादरी की तरह हम भी बडे-बडे सपने तो देखते हैं समाज को बदल डालने के, व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के परन्तु खुद को ही उनके अनुरूप नहीं बदलते। हमें लगता है कि हम पूर्ण हैं और हममें किसी भी बदलाव की कोई जरूरत नहीं है और इसी भ्रम में हमारे द्वारा बदलाव के सभी सपने अधूरे रह जाते हैं। दरअसल बदलना हमें खुद को होता है पर हम सबसे पहले संसार को ही बदल डालना चाहते हैं, दूसरों से ढेर सारी उम्मीदें और अपेक्षाएँ पाल लेते हैं और जब हमारी ये उम्मीदें और अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती तो हम खद की बजाय उन्हीं लोगों को कोसने लगते हैं। गालिब का एक शेर है कि-
“उम्र भर गालिब यही भूल करता रहा,
धूल चेहरे पे थी और आईना साफ करता रहा।”
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