essay on jaisa khai ana waisa bana maan in hindi 600 shabd ma
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जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन
भोजन के सन्दर्भ में एक बात ध्यान देने की है कि भोजन यदि अच्छी मनःस्थिति से बनाया जाता है तो वह स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है अन्यथा वह केवल पेट भराऊ हो जाता है। जिस दिन गृहणी के मन में कोई क्लेश हो वह भोजन स्वादिष्ट नहीं होता है। बाजारों में बनाया गया भोजन केवल धन अर्जन के उद्देश्य से बनाया जाता है।
भोजन के सन्दर्भ में एक बात ध्यान देने की है कि भोजन यदि अच्छी मनःस्थिति से बनाया जाता है तो वह स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है अन्यथा वह केवल पेट भराऊ हो जाता है। जिस दिन गृहणी के मन में कोई क्लेश हो वह भोजन स्वादिष्ट नहीं होता है।
भोजन के समय आसन और मौन का अपना अलग ही महत्व है भोजन भूमि पर रेशमी, कम्बल, ऊनी, काष्ठ तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन पर पालथी मार कर बैठकर ही करना चाहिए। काष्ठ आसनों में शमी, (शीशम) काश्मीरी शल्ल (शाल) कदम्भ, जामुन, आम, मौनक्षिरी एवं वरूण के आसन श्रेष्ठ रहते हैं। लकड़ी के आसनों में लोहे की कील नहीं होनी चाहिए।
भोजन के समय माँगने या मना करने का संकेत हाथ से ही करना चाहिए। भोजन कैसा है यह भी पूछना ठीक नहीं उसकी प्रशंसा पर निन्दा भी नहीं करनी चाहिए, सूकरक्षेत्र में भोजौ की प्रशंसा निन्दा प्रमुख विषय होता है।
भारत में जब हम कहीं भोजन करने बैठते हैं तो पहले जल हमारे समाने रखाजाता कहा जाता है? फिर कहा जाता है भोजन करो। फिर जल पहले क्यों? 'छान्दोग्य उपनिषद' के सप्तम आध्याय के दशम खण्ड में अन्न की अपेक्षा जल का महत्व अधिक है, यह बताया गया है अन्न जल से ही उत्पन्न होता है 'क्षुधा' से 'तृषा' ज्यादा तीक्षण होती है। भूख भोजन से शान्त होती है पर जल न हो तो भूख भी भाग जाती है। अन्न का कारण जल है, यदि जल न हो तो अन्न नहीं होगा, इसलिए अन्न से पहले जल हमारे समाने परोसा जाता है। आज के आधुनिक भोजनालय में पहले खाली बर्तन हमारे सामने आते हैं।
यन्दवेद उपनिषद के छठे आध्याय के छठे खण्ड के तीसरे भाग में बताया गया है कि पिये हुए जल का जो सूक्षम भाग होता है वह एकत्र होकर प्राण को पुष्ट करता है।
एक कहावत है- 'जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन' छन्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के पाँचवे और छठे खण्ड में इस स्पष्ट किया गया है, भोजन में लिया गया अन्न जठुरग्नि द्वारा तीन रूपों में परिवर्तित होता है- 'अन्नमशितं हे त्रेध विधीपते' स्थूल भाग मल हो जाता है, माध्यम भाग मांस होता है और उत्पन्न सूक्ष्म भाग मल हो जाता है, इसीलिए भारतीय ऋषियों ने भोजन की शुद्धता और सर्वग्रहिता पर बहुत गंभीरता से विचार किया सभी का अन्न ग्राहच नहीं है क्योंकि वह मन के निर्माझा का एक कारक है मन बुद्धि और कर्मो को प्रभावित करता है। इसलिए भोजन अन्न ग्रहिचता विचारणीय है
भोजन को बनाने और गृहण करने के सन्दर्भ में गीता में 3/13 कहा गया है यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग आपने शरीर पोषण के लिये ही अन्न पकाते हैं वे तो पाप को ही खाते हैं।
आज के लिखे पढ़े लोग वायु के द्वारा संक्रमित रोगों से बचाव के लिए अत्यधिक सजग हैं। तरह-तरह के मास्क पहनते हैं पर भोजन को अपवित्र और दूषित करने के प्रति सजग नहीं हैं। कही भी में एक ही प्लेट में भोजन करना यह एक जूठे हाथों से भोजन परोस लेना बुरा नहीं मानते। कब हम जूठन और पात्रों की पवित्रता के प्रति सजग होंगें?
भोजन का मन के साथ सम्बन्ध बहुत गहरा है। महाभारत शन्ति पर्व 217/98 में कहा गया है-आहार नियम में नास्य पाप्मा शाम्यति राजसः अर्थात् आहार में संयम रखने से पाप का श्रय होता है कुछ लोग बाजारों में चाट आदि के चाटने में बड़ा ही गर्व अनुभव करते हैं। वे स्थान का निरीक्षण नहीं करते है नीचे गन्दी जाली बड़ रही है। भोजन को ग्रहण करने में भोजन का निर्माणक कौन है स्थान कहाँ है व समय क्या अवश्य ही अवलोकन करना चाहिए तथा भूख लगने पर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए महाभारत उद्योगपर्व 34/50 कहता है-सुत् स्वादतां जपति। कुछ लोगों की आदत यह होती है कि वे हर वक्त कुछ न कुछ खाते रहते हैं-भुख अजा सम चलाता ही रहता है महाभारत शान्तिपर्व 693/10 कहता है-भोजन दिन में एक बार तथा रात्रि को एक बार करना चाहिए। गृहस्थ को दो बार भोजन करना चाहिए।
अतिथि देवो भवः के भाव परिपूर्ण हमारी संस्कृति में ब्रह्मणों, अतिथियों या याचकों की स्वागत व भोजन में क्या पदार्थ हो किस महीने में कौन सा भोज्य होना चाहिये यह भी स्पष्ट है।
चैत्र मास में गोधूम, अरहर, दही-चावल, बेल फल, आम आदि से तृप्त किया जाये-भविष्यपुराण। बैसाख मास में जौ के सत्तू, तक्र, विविध प्रकार के पेय अवश्य ही भोजन में होने चाहिए। जेष्ठमास के दही व भात का आहार हो आसाढ मास में आँवला का मुरब्बा या अचार, श्रावण खीर, भाद्रपद में खीर पुआ, अश्विन में पितृपक्ष व शारदीय नवरात्रि होती है जो श्राद्ध के निमित्त भोजनबना हो उस में तप्त किया जाय, नवरात्रि में हलुआ, खीर, चना का आहार हो कार्तिक मास में अनेक त्यौहारों के मिष्ठान से भोजन हो, अग्रहण्य में गुड का सेवन किया जाये, पौष माघ मास से मेवो, गुड़, बाजरा का मलीदा, मूंगफली, तिल, खिचड़ी आदि का भोजन होना अनिवार्य है। फाल्गुनमास में गुजिया, नमकीन, आदि का आहार होना चाहिए।