Essay on jar me neta hota
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रघुवीर सहाय की एक बड़ी मशहूर कविता है-- 'अगर कहीं मैं तोता होता, तोता होता तो क्या होता? तोता होता । होता तो फिर? होता,'फिर' क्या? होता क्या? मैं तोता होता। तोता तोता तोता तोता तो तो तो तो ता ता...' वैसे तो हम निखट्टू पत्रकारों का साहित्य से दुआ-सलाम लगभग नहीं ही होता, लेकिन रट्टू तोता के ज़माने की पढ़ाई के दौरान रटी गयी यह कविता अचानक बड़ी शिद्दत से याद आ गयी. अब ज़रा इसमें 'तोता' की जगह नेता लिख कर पढ़िए! (सहाय जी से क्षमा-याचना सहित). अगर कहीं मैं नेता होता, तो कुछ भी करता, जो करता, सो करता. और जो भी करता तो 'फिर' क्या? तू क्या कर लेता? कोई क्या कर लेता? जनता क्या कर लेती, वोट देती, वोट देती, वोट देती और देती रहती! नेता होता तो तो तो तो ता ता!
वह नेता हैं. और नेता हैं तो तो तो तो....तो फिर क्या? नेता जी, आपने घोटाला किया.....हाँ घोटाला किया तो? नेता जी, आप पर हत्या-बलात्कार के आरोप हैं.......आरोप हैं तो? अदालत में साबित नहीं हो पायेंगे! नेता जी, आपको अदालत ने सज़ा सुना दी.......हाँ सुना दी तो? पैरोल पर छूट कर, या बीमारी के बहाने बाहर आकर फिर रंगबाज़ी करेंगे! नेता जी, चारों तरफ़ बड़ा भ्रष्टाचार है........अच्छा, भ्रष्टाचार है तो? सीबीआई जाँच करके कुछ नहीं पायेगी! नेता जी, आपकी पार्टी में गुंडों, लुटेरों, डकैतों, माफ़िया की भरमार है......जनता पर ज़ुल्म हो रहे हैं......हो रहे हैं तो? यह सब मीडिया का कुप्रचार है, राजनीतिक षड्यंत्र है, सफ़ेद झूठ!
वह नेता हैं. खाता न बही, नेता जी जो कहें, वही सही! क़ानून-क़ायदा, सही-ग़लत, अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक, कर्म-कुकर्म से परे! पार्टी कोई भी हो, विचारधारा कोई भी हो, नेता मतलब नेता! बाक़ी आप तो तो ता ता करते रहिए! मक्खियों के भिनभिनाने की किसे परवाह है? और ख़ासकर तब, जब आजकल मक्खियाँ मारने की मशीनें आ गयी हैं! जगमग रोशनी वाली मशीनें! ऊपर से बड़ी सुन्दर दिखती हैं, और कोई मक्खी-मच्छर फँसा नहीं कि जल मरा! कभी-कभी जनता में कोई-कोई सिरफिरा हो जाता है, कोई अफ़सर बावला हो जाता है, सो मक्खी, मच्छर या पिल्ले की मौत मर कर नेता को अनावश्यक दुःख दे देता है!
अब मुज़फ़्फरनगर को ही लीजिए. कहते हैं कि कुछ षड्यंत्रकारी वहाँ कड़ाके की ठंड में फटे-चीथड़े तम्बुओं में रातें बिता कर अपने बच्चों को जानबूझकर मरवा रहे थे! इसलिए नेता जी ने बुलडोज़र चलवा कर तम्बुओं की बस्ती नेस्तनाबूद कर दी. षड्यंत्र का सफ़ाया कर दिया! और चले गये सेफ़ई में जश्न मनाने! कहते हैं कि तीन सौ करोड़ से भी ज़्यादा ख़र्च हुए होंगे नेता जी के जलसे पर! बहुत बड़े नेता हैं, तो भला इससे छोटा जलसा क्या करते? जनता अपनी दासी है, पैसा जनता का है, जनता के लिए ख़र्च हो रहा है, सेफ़ई में भी तो कुछ जनता रहती है, वह कुछ झूमझाम लेगी तो क्या आसमान टूट पड़ेगा? इसे कहते हैं, जनता का (ख़र्च) जनता के लिए और जनता के द्वारा! तो ख़्वाहमख़ाह बेचारे नेता जी को क्यों दोष दे रहे हो? वह तो वैसे ही मुलायम हैं. जनता के दुःख उनसे देखे नहीं जाते, इसलिए उसके तम्बू ही उखड़वा देते हैं! उन्हीं के प्रदेश में इससे पहले बहन जी हुआ करती थीं. उन्होंने जनकल्याण के लिए बहुत-से स्मृति-स्थल बनवा दिये! जनता भी क्या याद रखेगी! स्कूल और अस्पताल हों न हों, स्मारकों को निहारो, हँसो या रोओ, जो जी में आये, करो!
और एक नमो भाई हैं. जनता के सारे संकट हरने के लिए निकल पड़े हैं! देश भर की ख़ाक छान रहे हैं. सुना है कि वह अब जिस नये दफ़्तर में बैठते हैं, वह डेढ़ सौ करोड़ में बन कर तैयार हुआ है. विकासपुरुष का दफ़्तर है. तो दफ़्तर तो ऐसा होना ही चाहिए, जिसकी शान देख कर आँखें चौंधिया जायें. ताकि कोई यह न देख पाये कि गुजरात के एक तिहाई बच्चे कुपोषण के शिकार हैं!
एक सुशासन बाबू हैं. बड़े पुराने समाजवादी हैं. लोकतंत्र में गहरी आस्था है. सुनते हैं कि बिहार का बहुत विकास किया है. गुजरात माॅडल बनाम बिहार माॅडल की बड़ी बहस छेड़े हैं. लोग कहते हैं, उनके यहाँ मीडिया में बस हर जगह विकास-विकास ही छपता-दिखता है. अगर न दिखे, तो सुनते हैं कि टेंटुआ पकड़ लिया जाता है! गुजरात माॅडल और बिहार माॅडल में नाम के सिवा क्या फ़र्क है, हम अभी तक समझ नहीं सके!
किसकी-किसकी बात करें, कहाँ तक करें? एक बड़ी ममतामयी दीदी हैं. बड़ी जुझारू भी हैं. इतनी कि अपनी ही जनता के ख़िलाफ़ जंग छेड़ रखी है! उनकी 'ममता' के क़िस्से अब आम हो चुके हैं. क्या मजाल कि उनकी इजाज़त के बग़ैर कोई रो भी सके? कोई मर जाये, मार दिया जाये, लुट-पिट जाये, बलात्कार पर बलात्कार झेल कर मर जाये, लेकिन रोना तो दूर, कोई चूँ भी नहीं कर सकता!
माणिक सरकार और मनोहर पर्रीकर जैसे कुछ अपवादों (केजरीवाल को अभी परखना बाक़ी है) को छोड़ दें, तो हमारी राजनीति का चेहरा ऐसा क्रूर क्यों है? दम्भ, अहंकार और सत्ता मद में आकंठ डूबा हुआ! और चारों तरफ़ हर चेहरा एक ही जैसा क्यों है? कहीं कोई फ़र्क़ नहीं. बस कोई थोड़ा कम, कोई थोड़ा ज़्यादा! काँग्रेस कहो, बीजेपी कहो, अमुक पार्टी कहो या तमुक पार्टी---- नेता मतलब नेता! सेफ़ई से लेकर कोलकाता तक, पटना से लेकर अहमदाबाद तक, दिल्ली से लेकर छोटी-बड़ी हर राजधानी, ज़िले और शहर तक नेता नाम की कोई भी शक्ल देख कर रघुवीर सहाय की कविता बरबस ही याद आ जाती है. कहते हैं कविता कभी-कभी हथियार बन जाती है. क्या वह समय आ चुका है कि यह कविता हथियार बने?