Hindi, asked by adityarana181105, 9 months ago

essay on मीडिया का गिरता स्तर भारत के लोकतंत्र के लिए हानिकारक है

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कोई दस साल पहले जब न्यूज चैनलों के प्राइम-टाइम स्लॉट को बाबा, भूत-भभूत और ‘एलियन’ के शिकंजे से छुड़ाकर स्वस्थ स्टूडियो चर्चा की ओर लाया गया तो उद्देश्य था जनसंवाद के केंद्र में लोकोपयोगी मुद्दों को लाना। इससे अपेक्षा की गई थी कि एंकर उस मुद्दे पर यथासंभव जानकारी अपनी रिसर्च यूनिट से हासिल कर पूरी तरह सत्य के निकट पहुंचने की कोशिश करेगा। यानी वे पक्ष-विपक्ष दोनों पहलू से समाज को अवगत कराने की ईमानदार कोशिश करेंगे। इस राजनीतिक संवाद में विभिन्न पार्टियों के प्रमुख लोग होंगे और सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक या अन्य मामलों में उस विषय के प्रतिनिधि तथा जानकार और स्वतंत्र विश्लेषक होंगे, जिनकी जानकारी और निरपेक्ष तर्कशक्ति विषय को ट्रैक पर रखेगी।

कोई दस साल पहले जब न्यूज चैनलों के प्राइम-टाइम स्लॉट को बाबा, भूत-भभूत और ‘एलियन’ के शिकंजे से छुड़ाकर स्वस्थ स्टूडियो चर्चा की ओर लाया गया तो उद्देश्य था जनसंवाद के केंद्र में लोकोपयोगी मुद्दों को लाना। इससे अपेक्षा की गई थी कि एंकर उस मुद्दे पर यथासंभव जानकारी अपनी रिसर्च यूनिट से हासिल कर पूरी तरह सत्य के निकट पहुंचने की कोशिश करेगा। यानी वे पक्ष-विपक्ष दोनों पहलू से समाज को अवगत कराने की ईमानदार कोशिश करेंगे। इस राजनीतिक संवाद में विभिन्न पार्टियों के प्रमुख लोग होंगे और सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक या अन्य मामलों में उस विषय के प्रतिनिधि तथा जानकार और स्वतंत्र विश्लेषक होंगे, जिनकी जानकारी और निरपेक्ष तर्कशक्ति विषय को ट्रैक पर रखेगी।दरअसल यह प्रयास दो कारणों से किया गया। पहला, घटिया विषय-वस्तु देने से समाज में मीडिया और खासकर संपादकों की छवि काफी गिरने लगी थी। दूसरा, प्रजातंत्र के बेहतर संचरण के चार मूल तत्व होते हैं-बहुमत का शासन, अल्पसंख्यकों के अधिकार की रक्षा, संवैधानिक शासन पद्धति और विमर्श से शासन। क्योंकि चुनाव जीत कर सरकार चलाना कोई साइकिल स्टैंड का ठेका लेना नहीं है और सरकार से उसके कार्यों का हिसाब लगातार लेना, जनविमर्श के जरिये उसे अमुक कार्य करने या न करने के लिए प्रेरित करना और अगले चुनाव में उसे खारिज करने या फिर बहाल करने का भय बनाए रखना इसी विमर्श का हिस्सा होता है। इसी अवधारणा के कारण मीडिया की भूमिका स्वस्थ प्रजातंत्र में अपरिहार्य मानी जाती है।

कोई दस साल पहले जब न्यूज चैनलों के प्राइम-टाइम स्लॉट को बाबा, भूत-भभूत और ‘एलियन’ के शिकंजे से छुड़ाकर स्वस्थ स्टूडियो चर्चा की ओर लाया गया तो उद्देश्य था जनसंवाद के केंद्र में लोकोपयोगी मुद्दों को लाना। इससे अपेक्षा की गई थी कि एंकर उस मुद्दे पर यथासंभव जानकारी अपनी रिसर्च यूनिट से हासिल कर पूरी तरह सत्य के निकट पहुंचने की कोशिश करेगा। यानी वे पक्ष-विपक्ष दोनों पहलू से समाज को अवगत कराने की ईमानदार कोशिश करेंगे। इस राजनीतिक संवाद में विभिन्न पार्टियों के प्रमुख लोग होंगे और सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक या अन्य मामलों में उस विषय के प्रतिनिधि तथा जानकार और स्वतंत्र विश्लेषक होंगे, जिनकी जानकारी और निरपेक्ष तर्कशक्ति विषय को ट्रैक पर रखेगी।दरअसल यह प्रयास दो कारणों से किया गया। पहला, घटिया विषय-वस्तु देने से समाज में मीडिया और खासकर संपादकों की छवि काफी गिरने लगी थी। दूसरा, प्रजातंत्र के बेहतर संचरण के चार मूल तत्व होते हैं-बहुमत का शासन, अल्पसंख्यकों के अधिकार की रक्षा, संवैधानिक शासन पद्धति और विमर्श से शासन। क्योंकि चुनाव जीत कर सरकार चलाना कोई साइकिल स्टैंड का ठेका लेना नहीं है और सरकार से उसके कार्यों का हिसाब लगातार लेना, जनविमर्श के जरिये उसे अमुक कार्य करने या न करने के लिए प्रेरित करना और अगले चुनाव में उसे खारिज करने या फिर बहाल करने का भय बनाए रखना इसी विमर्श का हिस्सा होता है। इसी अवधारणा के कारण मीडिया की भूमिका स्वस्थ प्रजातंत्र में अपरिहार्य मानी जाती है।स्टूडियो परिचर्चा के जरिये हमारा प्रयास था कि सार्थक मुद्दों पर बहस के माध्यम से दर्शकों को दोनों पक्ष के तथ्य दे दिए जाएं 

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