essay on manushya vahi hai jo manushya ke liye mare
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बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के आदर्श वाक्य में भारतीय संस्कृति की मानवमात्र के कल्याण की भावना निहित है । उसके अनुसार मनुष्य का जन्म जनहित के लिए हुआ है । वर्षा का जल अपने लिए नहीं, धरती की तृप्ति के लिए बरसता है; नदियों का जल-कोष सदावर्त की भावना का परिचायक है ।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के दृष्टिकोणवाली हमारी संस्कृति का मूलाधार है:
“सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेन् ।।”
दानवों के अत्याचार से सारी सृष्टि कराह उठी थी । सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । एक ही मार्ग शेष था- यदि महर्षि दधीच की अस्थियों से वज्र वनाया जाए तो समाज इस आपत्ति से बच सकता है । सब देवता दधीच के पास गए और उस पुण्यात्मा ने सहर्ष इस नश्वर शरीर का त्याग कर अपनी अस्थियों का दान कर दिया । इस पौराणिक रूपक को आप इस रूप में भी ले सकते हैं कि दधीच ने परोपकार की भावना से मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए अपना शरीर गला दिया ।
राजा शिवि के उपाख्यान पर भी दृष्टिपात कीजिए । क्या उन्होंने दीन कपोत रूपी मानवता के लिए अपने शरीर का तिल-तिल भाग नष्ट नहीं कर डाला था ? रतिदेव ने भूख से व्याकुल मानवों के लिए अन्न-दान किया । विशुद्ध सेवा-भाव से पृथ्वी पर घूमते रहनेवाले छद्मवेशी महाराज विक्रमादित्य की कहानियाँ तो विश्व-विश्रुत ही हैं ।
संतों का जीवन परोपकार की भावना से ओत-प्रोत होता है । ‘परोपकाराय हि सतां विभूतय:’ वाला वाक्य उन पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होता है । संत किसी भी भूभाग, जाति अथवा राष्ट्रीयता के अंचल से उद्भूत हुए हों, जनगण हितार्थ सर्वस्व त्याग के लिए सर्वदा उद्यत रहते हैं ।