Essay on nagarik kartavya palan in hindi
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सामान्यत: किसी एक देश का नगर-गांव वासी नागरिक होता है, परंतु व्यापक अर्थ में किसी स्वतंत्र राज्य, राष्ट्र में निवास करने वाले व्यक्ति को नागरिक कहा जाता है। एक जीवित इकाई होने के कारण प्रत्येक नागरिक को जहां अनेक प्रकार के अधिकार प्राप्त रहा करते हैं, वहां उसको कई प्रकार के कर्तव्यों का पालन भी आवश्यक रूप से करना होता है। अधिकार और कर्तव्यों के पालन एंव निर्वाह से ही नागरिकता की पहचान होकर वह सुरक्षित रहती और सफल-सार्थक भी हुआ करती है।
नागरिकता के मुख्य दो रूप होते हैं-एक स्वाभाविक या जन्मजात नागरिकता, अर्थात व्यक्ति जिस गांव, नगर, देश में जन्म लेता है, उसकी नागरिकता उसे अपने आप ही प्राप्त हो जाया करती है। दूसरी गृहीत नागरिकता, अर्थात जब कोई व्यक्ति कहीं दूसरे देश में जन्म लेकर भी किसी दूसरे राज्य, राष्ट्र या देश में जाकर स्थायी रूप से बस जाता है और उसे सभी प्रकार की नागरिक सुविधांए पाने का अधिकार मिल जाता है। नागरिकता चाहे किसी भी प्रकार की हो, पर अधिकार और कर्तव्य हमेशा समान ही रहा करते हैं। उनका उचित निर्वाह भी सर्वत्र अनिवार्य होता है। उन्हीं से सच्चे नागरिक की पहचान हुआ करती है।
नागरिक को अपने मत का प्रयोग करके सरकारों के बनाने-गिराने में सहभागी बनाने का अधिकार रहता है। पर यह अधिकार केवल भारत जैसे जनतंत्री व्यवस्था वाले देशों में ही प्राप्त रहा करता है, सभी जगह नहीं। उसे अनेक प्रकार के अधिकार प्राप्त रहा करते हैं। स्वतंत्र देश का प्रत्येक नागरिक राज्य और सरकार से रोटी-रोजी, तन ढकने के लिए कपड़े और सर ढकने के लिए मकान की मांग कर सकता है। नागरिक को अधिकार होता है कि वह अच्छी-से-अच्छी व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवा, कानूनी व्यवस्था और न्याय की मांग कर उसे प्राप्त कर सके। उसे अधिकार है कि वह आवश्यक सफाई कराने की मांग कर सके। कहीं भी उस पर या आस-पड़ोस पर कोई अन्याय-अत्याचार हो रहा हो तो उसके निराकरण की मांग करने का सुरक्षित अधिकार भी प्रत्येक नागरिक के पास रहा करता है। अनेक प्रकार के अधिकरण, न्यायालय, अस्पताल, नगरपालिकांए, नगर-निगम और अन्य प्रकार की सरकारी-गैर-सरकारी सामाजिक संस्थांए, पुलिस सैनिक, अर्धसैनिक दल आदि नागरिकों के इन अधिकारों की सुरक्षा और देखभाल करने के लिए ही हुआ करते हैं। आवश्यकता पडृने पर प्रत्येक नागरिक इनसे सहायता प्राप्त कर सकता है। आज भ्रष्ट वातावरण में व्यवस्थागत दोषों के कारण उसे इन संस्थानों से क्या और कितना कुछ प्राप्त होता है, यह अलग बात है। सत्य यह है कि आज की परिस्थितियों में इनके कारण नागरिक को प्राय: दयनीय ही कहा जा सकता है।
अधिकारों की चर्चा के बाद अब नागरिक के कर्तव्यों पर भी दृष्टिपात कर लिया जाए। नागरिक का सबसे पहला कर्तव्य है कि जिस देश की व्यवस्था ने उसे सब प्रकार के अधिकार प्रदान कर रखे हैं, उसके प्रति वह सब प्रकार से सच्चा, निष्ठावान और ईमानदार रहे। अधिकार से संबंधित जितनी भी आतें, क्रिया-प्रक्रियांए हैं, उनके प्रति सजग-सावधान और सहायक रहना भी नागरिक का परम कर्तव्य है। उसका कर्तव्य है कि वह ऐसा कोई भी कार्य न करे, जिससे व्यवस्था भंग होती हो, या नागरिकों को किसी भी प्रकार से हानि पहुंच पाने की संभावना हो। उसे इस प्रकार के कार्य भी करने चाहिए कि जिनसे अधिक नहीं तो आस-पड़ोस के लोगों को सहायता पहुंच सके। उनमें आपसी विश्वास, सदभाव और सुरक्षा की भावना बनी रहे। सफाई का ध्यान रखना, अफवाहों से बचना, लोगों को ऐसक कार्य न करने देना कि जो अशांति फैलाने वाले हों-इत्यादि भी नागरिक के कर्तव्य माने जाते हैं। आज के संदर्भों में तो इस प्रकार के कर्तव्यों का महत्व और भी बढ़ गया है। इसी प्रकार अच्छा नागरिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार, कुरीतियों-कुप्रथाओं और अंधविश्वासों को मिटाने में भी सहायक बन सकता है। समर्थ नागरिक ऐसे कार्यों का आयोजन भी कर सकता है, जिनसे लोगों को कई प्रकार की समस्यांए सुलझें, उन्हें काम-धंधे और रोजी-रोटी प्राप्त हो सके। कानून-व्यवस्था बनाए रखने में भी प्रत्येक नागरिक सहायक हो सकता है। हर अच्छा नागरिक हुआ भी करता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि अधिकार और कर्तव्यों का समन्वय ही वास्तविक नागरिकता है। किसी नागरिक को अपने कर्तव्यों का उचित पाल और निर्वाह करने पर ही अधिकारों का उपयोग करने का हक हुआ करता है। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि हम बुनियादी अधिकारों के नाम पर अधिकारों की मांग करते तो थकते नहीं। पर कर्तव्य-पालन के नाम पर ही बिदक जाते हैं, दांए-बांए झांकने और बेकार की बातें करके पिंड छुड़ाने की कोशिश करने लगते हैं। स्वतंत्र राष्ट्रों में इस प्रकार की मानसिकता शुभ, स्वस्थ और सुखद नहीं कही जा सकती। इसे हीन और पलायनवादी मनोवृत्ति ही कहा जाएगा। नागरिकता की रक्षा के लिए इस प्रकारकी हीन मानसिकता से बचाव आवश्यक है।
कर्तव्य और अधिकार नागरिकता की गाड़ी के दो पहिए हैं। दोनों के संतुलन से ही सही नागरिकता का निर्वाह और रक्षा होकर राज्य और राष्ट्र की भी उन्नति हो सकती है। प्रत्येक नागरिक को इस बुनियादी बात का ध्यान रखते हुए संतुलन ही कर्तव्यों के प्रति सजग रह अधिकारों का सदुपयोग करना चाहिए। कर्तव्य-अधिकार का संतुलन ही सफल नागरिकता का सर्वाधिक स्पष्ट एंव उन्नत लक्षण है तो है ही, सर्वागीण उन्नति का बुनियादी कारण भी है।