Essay on naitikta manavta ke liye aavashayak in hindi.
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नैतिकता मनुष्य का वह गुण है जो उसे देवत्व के समीप ले जाता है । यदि शुरू में नैतिकता न हो तो पशुता और मनुष्यता में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता है । नैतिकता ही संपूर्ण मानवता का श्रुंगार है ।
वेदों, उपनिषदों एवं अन्य सभी धर्मग्रंथों में नैतिक अथवा सदाचार शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है । समस्त ऋषि-मुनियों व शास्त्रियों की मान्यता है कि मनुष्य का चरित्र तभी तक है जब तक उसमें नैतिकता व चारित्रिक दृढ़ता है ।
चरित्रविहीन मनुष्य पशु के समान है और एक पशु चाहे वह कितना ही सुंदर हो, उसकी आवाज कितनी ही मधुर क्यों न हो, वह एक मानव की ऊँचाइयों को कभी नहीं छू सकता । हमारी भारतीय संस्कृति में सदैव ही नैतिक मूल्यों की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है । मनुष्य के जीवन में अच्छे चरित्र का विशेष महत्व है । दूसरे शब्दों में अच्छे चरित्र से ही मनुष्य की अस्मिता कायम है ।
अच्छे चरित्र के महत्व को उजागर करते हुए संस्कृत की एक सूक्ति निम्नलिखित है:
”वृन्तं यत्नेन सरंक्षंद् विन्तयादाति याति च । अक्षीणो विन्तत: क्षीणो, वृन्ततस्तु हतो हत: ।।”
उक्त सूक्ति में चरित्रविहीन व्यक्ति को मृत के समान बताया गया है । अत: चरित्र का बल प्राणि जगत के लिए अनिवार्य है । इस चरित्र-बल की प्राप्ति हेतु नैतिक शिक्षा अनिवार्य है क्योंकि नैतिक मूल्यों की अवधारणा ही चरित्र-बल है ।
नैतिक शिक्षा का अभाव अनेक प्रकार के दुष्परिणामों को देखने के लिए बाध्य करता है । देश में फैले भ्रष्टाचार, लूटमा,र आगजनी, बलात्कार एवं अन्य अपराध नैतिकता के अभाव की ही परिणति हैं । हमारी वर्तमान पीढ़ी जब इतनी अनैतिक व चरित्रविहीन है तो आने वाली पीढ़ियों का स्वरूप क्या होगा इसकी कल्पना हम सहज ही कर सकते हैं । संपूर्ण विश्व में औद्योगिक प्रगति की लहर चल रही है ।
विज्ञान व तकनीकी के क्षेत्र में नित नई खोजें व प्रयोग चल रहे हैं परंतु मानव जाति व देश के लिए यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमारे शिक्षा-शास्त्रियों व बड़े-बड़े नेताओं ने देश में नैतिक शिक्षा की अनिवार्यता नहीं समझी है । वह शिक्षा जो आत्म-विकास एवं मनुष्य जीवन में संतुलन बनाए रख सकती है उसे ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया गया । उसे निरंतर उपहास की दृष्टि से देखा जाता रहा है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि नैतिक शिक्षा का स्वरूप कैसा हो ? इस शिक्षा का प्रभावी रूप क्या है ? क्योंकि धर्मग्रंथों के उपदेश या फिर चरित्र निर्माण हेतु सजीले भाषण आज के वातावरण में प्रभावी नहीं हो सकते । इन परिस्थितियों में आवश्यक है कि नैतिक शिक्षा का स्वरूप प्रायोगिक एवं सतत् हो ।
इसके लिए आवश्यक है कि पाठ्यक्रमों में नैतिक शिक्षा को समाहित किया जाए तथा विज्ञान व अन्य विषयों की भांति इसे भी पूर्ण महत्व दिया जाए । अन्य विषयों के साथ ही नैतिक शिक्षा की भी विधिवत् परीक्षा होनी चाहिए तभी छात्र एवं शिक्षक दोनों मनोयोग से इसे स्वीकृति देंगे । छात्र को नैतिक शिक्षा में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता होनी चाहिए । यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसे प्रभावी रूप दे पाना संभव नहीं होगा।
वेदों, उपनिषदों एवं अन्य सभी धर्मग्रंथों में नैतिक अथवा सदाचार शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है । समस्त ऋषि-मुनियों व शास्त्रियों की मान्यता है कि मनुष्य का चरित्र तभी तक है जब तक उसमें नैतिकता व चारित्रिक दृढ़ता है ।
चरित्रविहीन मनुष्य पशु के समान है और एक पशु चाहे वह कितना ही सुंदर हो, उसकी आवाज कितनी ही मधुर क्यों न हो, वह एक मानव की ऊँचाइयों को कभी नहीं छू सकता । हमारी भारतीय संस्कृति में सदैव ही नैतिक मूल्यों की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है । मनुष्य के जीवन में अच्छे चरित्र का विशेष महत्व है । दूसरे शब्दों में अच्छे चरित्र से ही मनुष्य की अस्मिता कायम है ।
अच्छे चरित्र के महत्व को उजागर करते हुए संस्कृत की एक सूक्ति निम्नलिखित है:
”वृन्तं यत्नेन सरंक्षंद् विन्तयादाति याति च । अक्षीणो विन्तत: क्षीणो, वृन्ततस्तु हतो हत: ।।”
उक्त सूक्ति में चरित्रविहीन व्यक्ति को मृत के समान बताया गया है । अत: चरित्र का बल प्राणि जगत के लिए अनिवार्य है । इस चरित्र-बल की प्राप्ति हेतु नैतिक शिक्षा अनिवार्य है क्योंकि नैतिक मूल्यों की अवधारणा ही चरित्र-बल है ।
नैतिक शिक्षा का अभाव अनेक प्रकार के दुष्परिणामों को देखने के लिए बाध्य करता है । देश में फैले भ्रष्टाचार, लूटमा,र आगजनी, बलात्कार एवं अन्य अपराध नैतिकता के अभाव की ही परिणति हैं । हमारी वर्तमान पीढ़ी जब इतनी अनैतिक व चरित्रविहीन है तो आने वाली पीढ़ियों का स्वरूप क्या होगा इसकी कल्पना हम सहज ही कर सकते हैं । संपूर्ण विश्व में औद्योगिक प्रगति की लहर चल रही है ।
विज्ञान व तकनीकी के क्षेत्र में नित नई खोजें व प्रयोग चल रहे हैं परंतु मानव जाति व देश के लिए यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमारे शिक्षा-शास्त्रियों व बड़े-बड़े नेताओं ने देश में नैतिक शिक्षा की अनिवार्यता नहीं समझी है । वह शिक्षा जो आत्म-विकास एवं मनुष्य जीवन में संतुलन बनाए रख सकती है उसे ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया गया । उसे निरंतर उपहास की दृष्टि से देखा जाता रहा है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि नैतिक शिक्षा का स्वरूप कैसा हो ? इस शिक्षा का प्रभावी रूप क्या है ? क्योंकि धर्मग्रंथों के उपदेश या फिर चरित्र निर्माण हेतु सजीले भाषण आज के वातावरण में प्रभावी नहीं हो सकते । इन परिस्थितियों में आवश्यक है कि नैतिक शिक्षा का स्वरूप प्रायोगिक एवं सतत् हो ।
इसके लिए आवश्यक है कि पाठ्यक्रमों में नैतिक शिक्षा को समाहित किया जाए तथा विज्ञान व अन्य विषयों की भांति इसे भी पूर्ण महत्व दिया जाए । अन्य विषयों के साथ ही नैतिक शिक्षा की भी विधिवत् परीक्षा होनी चाहिए तभी छात्र एवं शिक्षक दोनों मनोयोग से इसे स्वीकृति देंगे । छात्र को नैतिक शिक्षा में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता होनी चाहिए । यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसे प्रभावी रूप दे पाना संभव नहीं होगा।
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thanks so much
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lodaa lo mera chutiya ho tum bosidi Wale bhi ho
Explanation:
lodaa
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