Essay on non voilense in hindi
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शास्त्रों में हिंसा को पंच यमों में से एक माना गया है। किसी प्राणी का अकारण घात न करना या किसी को किसी भी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा सत्य का प्राण है, स्वर्ग का द्वार है, जगत् की माता है, आनन्द का अजस्र स्रोत है, उत्तम गति है, शाश्वत श्री है और है मानव-मात्र के लिए परम धर्म। इसलिए महर्षि दयानन्द कहते हैं, ‘मनसा, वाचा, कर्मणा, किसी को किसी प्रकार का दु:ख न पहुँचाओ। क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की प्रतिपक्ष भावना से जीतो।’ मलूकदास कहते हैं-
पीर सबन की एक सी मुरख जानत नाहिं।
काँटा चुभे पीर है, गला काटि को खाई॥
गुरुनानक इसी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं-
क्या बकरी क्या गाय है, क्या अपनो जाया।
सबको लोहू एक है, साहिब फरमाया।
पीर पैगम्बर औलिया, सब मरने आया।
नाहक जीवन मारिये, पोषण को काया।
प्रभु राम का असुर संहारार्थ युद्ध, योगेश्वर कृष्ण का विनाशाय च दुष्कृताम्’ महाभारत युद्ध, शिवाजी का हिन्दू रक्षार्थ मुगलों पर आक्रमण, क्रांतिकारियों का स्वातन्त्र्य प्राप्ति के लिए सशस्त्र विद्रोह, पवित्र स्वर्ण मन्दिर में सैनिक कार्यवाही, सब अहिंसा की सीमान्तर्गत हैं। जैन महामुनि उमा स्वाति जी के ‘तत्त्वार्थ सूत्र’ का प्रस्तुत सूत्र इसका समर्थन करता है। ‘प्रमत्त योगात् प्राण व्यरोपणं हिंसा’–‘प्रमत्तयोग’ हिंसा है। शांत, सुविचारित, कल्याणार्थ हिंसा भी अहिंसा ही है।
कायरता, भीरुता, दुर्बलता, नपुंसकता, परिस्थितियों से साक्षात्कार का अभाव, मनोबल की हीनता के नाम पर समर्पण अहिंसा नहीं । यह अहिंसा का ढोंग है, प्रदर्शन है, प्रवंचना है। आततायी लोगों के अत्याचार सहन करना, प्रतिकार या प्रतिरोध न करना अहिंसा नहीं। धर्म विरोधी आचरण अहिंसा नहीं।असामाजिक तत्वों के अनाचार को सहना अहिंसा नहीं । भारत–विभाजन इसी प्रवंचनामयी अहिंसा का दुष्परिणाम है ।उग्रवाद के आगे अहिंसात्मक समर्पण अहिंसा का ढोंग ही तो है। दिनकर जी का यह कथन, ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है, सच्ची अहिंसा के लक्षण प्रस्तुत करता है। अतः अहिंसा वीरता का भूषण है तो कायर के भाल का कलंक।
शास्त्रों में हिंसा को पंच यमों में से एक माना गया है। किसी प्राणी का अकारण घात न करना या किसी को किसी भी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा सत्य का प्राण है, स्वर्ग का द्वार है, जगत् की माता है, आनन्द का अजस्र स्रोत है, उत्तम गति है, शाश्वत श्री है और है मानव-मात्र के लिए परम धर्म। इसलिए महर्षि दयानन्द कहते हैं, ‘मनसा, वाचा, कर्मणा, किसी को किसी प्रकार का दु:ख न पहुँचाओ। क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की प्रतिपक्ष भावना से जीतो।’ मलूकदास कहते हैं-
पीर सबन की एक सी मुरख जानत नाहिं।
काँटा चुभे पीर है, गला काटि को खाई॥
गुरुनानक इसी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं-
क्या बकरी क्या गाय है, क्या अपनो जाया।
सबको लोहू एक है, साहिब फरमाया।
पीर पैगम्बर औलिया, सब मरने आया।
नाहक जीवन मारिये, पोषण को काया।
प्रभु राम का असुर संहारार्थ युद्ध, योगेश्वर कृष्ण का विनाशाय च दुष्कृताम्’ महाभारत युद्ध, शिवाजी का हिन्दू रक्षार्थ मुगलों पर आक्रमण, क्रांतिकारियों का स्वातन्त्र्य प्राप्ति के लिए सशस्त्र विद्रोह, पवित्र स्वर्ण मन्दिर में सैनिक कार्यवाही, सब अहिंसा की सीमान्तर्गत हैं। जैन महामुनि उमा स्वाति जी के ‘तत्त्वार्थ सूत्र’ का प्रस्तुत सूत्र इसका समर्थन करता है। ‘प्रमत्त योगात् प्राण व्यरोपणं हिंसा’–‘प्रमत्तयोग’ हिंसा है। शांत, सुविचारित, कल्याणार्थ हिंसा भी अहिंसा ही है।
कायरता, भीरुता, दुर्बलता, नपुंसकता, परिस्थितियों से साक्षात्कार का अभाव, मनोबल की हीनता के नाम पर समर्पण अहिंसा नहीं । यह अहिंसा का ढोंग है, प्रदर्शन है, प्रवंचना है। आततायी लोगों के अत्याचार सहन करना, प्रतिकार या प्रतिरोध न करना अहिंसा नहीं। धर्म विरोधी आचरण अहिंसा नहीं।असामाजिक तत्वों के अनाचार को सहना अहिंसा नहीं । भारत–विभाजन इसी प्रवंचनामयी अहिंसा का दुष्परिणाम है ।उग्रवाद के आगे अहिंसात्मक समर्पण अहिंसा का ढोंग ही तो है। दिनकर जी का यह कथन, ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है, सच्ची अहिंसा के लक्षण प्रस्तुत करता है। अतः अहिंसा वीरता का भूषण है तो कायर के भाल का कलंक।