Essay on par updesh kusal Bhutre
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lमहान रचनाकार ही ऐसी कृतियों का सृजन करते हैं जो कालजयी होने के साथ-साथ उनकी मौलिक प्रतिभा का निदर्शन कराते हैं। ऐसी रचनाओं में वे ऐसे मूल्यों को प्रकट करते हैं जो शाश्वत होने के साथ-साथ मानव के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करता है। महाकवि तुलसीदास एक ऐसे ही रचनाकार हैं। उनके द्वारा रचित रामचरितमानस में ऐसी अनेक सूक्तियां भरी पड़ी हैं,जो मानव जीवन को प्रेरणा देने वाली और उचित दिशा दिखाने वाली हैं। इसी प्रकार की एक सूक्ति है:- “पर उपदेश कुशल बहुतेरे।”
प्रस्तुत सूक्ति का प्रयोग तुलसीदास ने मेघनाद वध के बाद किया था। मेघनाद के वध का समाचार सुनकर रावण मूर्छित हो जाता है परंतु जब मंदोदरी आदि सभी स्त्रियां विलाप करने लगती हैं तो रावण उन सबको ज्ञान का उपदेश देकर सांत्वना देने की कोशिश करता है। रावण उन्हें जगत की नश्वरता का उपदेश देकर समझाने का प्रयत्न करता है। इसी पर तुलसीदास ने इस उक्ति का कथन किया है
तिन्हहिं ग्यान उपदेसा रावन, आपुन मंद कथा सुभ पावन
।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे अचरहिं ते नर न घनेरे
।।
अभिप्राय यह है कि दूसरों को उपदेश देने में तो लोग बहुत कुशल होते हैं, लेकिन कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो उसके अनुसार आचरण करते हैं। मनुष्य में दूसरों को उपदेश देने की प्रवृत्ति अनादि काल से विद्यमान रही है। इसके माध्यम से वह दूसरों पर अपने ज्ञान, अपनी बुद्धि और अपने विचार की रौब जमाकर अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता है और अपने अहम की पूर्ति करना चाहता है। अधिकांश लोगों की यह इच्छा होती है कि दूसरे लोग उसे बुद्धिमान समझें, विद्वान माने और इसके लिए वह चाहे अनचाहे लोगों के सामने अपने ज्ञान का बखान करता है। इस प्रकार से वह अपने आप को दूसरे की तुलना में अधिक योग्य सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। यह मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रकृति है।
दूसरों को हमेशा उपदेश देने वाले ज्यादातर व्यक्ति ऐसे होते हैं,जिनके अपने स्वभाव का आचरण अपने उपदेश से भिन्न होता है। कुछ असाधारण लोग ही ऐसे होते हैं, जिनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता। ऐसे लोग अपने आचरण पर ध्यान देते हैं न कि दूसरों को उपदेश देने पर। कथनी करनी में एकरूपता रखने वाले व्यक्ति ही समाज में सम्मान प्राप्त करते हैं तथा सामान्य जन के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वह अपने कर्मों से समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिससे कि वह अन्य लोग उनका अनुकरण कर सकें। राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, विवेकानंद, बाल गंगाधर तिलक, भगत सिंह, महात्मा गांधी आदि ने अपने आचरण और सत्य कर्मों से ही लोगों को प्रेरित किया न कि उपदेश देकर। अतः यह महापुरुष आज भी समाज में समादृत हैं।
वर्तमान समय में संसार में दूसरों को उपदेश देने वालों की कमी नहीं है, लेकिन आचरण उनकी कथनी के अनुरूप नहीं है। आज हमारे देश समाज के सामने अनेक समस्याएं मौजूद हैं। इनके लिए हमारे नेता या साधु संत अनेक प्रकार के समाधान भी प्रस्तुत करते हैं, उनकी बातों को सुनकर ऐसा लगता है कि इससे उत्तम विचार एवं सार्थक बात तो कोई और हो ही नहीं सकती,लेकिन फिर भी समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। जब हम उन्हें उनकी कथनी के विपरीत आचरण करता हुए देखते यह सुनते हैं तब उसका प्रभाव शून्य हो जाता है। इसलिए आज हमारे सामने आदर्श पुरुषों की कमी है। कथनी करनी में भेद रखने वाले व्यक्ति से समाज में पाखंड और मिथ्याचार पनपते हैं तथा सच्चाई छुप जाती है। फलस्वरुप समाज का हित होना तो दूर की बात है बल्कि अहित हो जाता है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे के कारण ही बड़े-बड़े संतों की कही हुई बातों पर भी लोग विश्वास नहीं करते। अतः यह अत्यंत आवश्यक है कि जो मुख से निकले उसका संबंध हमारे हृदय से हो। वह हमारी आत्मा का अनुभव हो, उसमें एक सत्यता निहित हो तथा हमारा व्यवहार भी उसी के अनुरूप हो।
अंततः यदि मनुष्य केवल उपदेश देता रहे तथा स्वयं उपदेशों का पालन नहीं करें तो फिर उसके उपदेश की कोई सार्थकता नहीं रह जाती। फिर वह व्यक्ति समाज या देश किसी को प्रभावित नहीं कर सकता। अपने ही कहे वचन का पालन करने वालों की संख्या संसार में कम ही होती है, परंतु ऐसा करने वाले ही महान तथा आदर्श बनते हैं। हमारे चरित्र निर्माण के लिए कथनी-करनी में एकता की आवश्यकता है। अतः हमें पर उपदेश कुशल बहुतेरे की प्रवृति से बचना चाहिए।