essay on पर्यावरण सुरक्षा एक सामाजिक दायित्व
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विश्व पर्यावरण दिवस पर बधाई पर्यावरण के संरक्षण के लिए एक निवेदन अपने सभी साथियों व पाठकों से.
तन को जला डालने वाली दाहक गर्मी,भीषण ठण्ड, नवम्बर दिसंबर में भी चलते पंखे वो भी उत्तर भारत में, अतिवृष्टि ,बाढ़ों का प्रकोप,पूर्णतया सूखा,आग उगलती धरती ! कभी कभी तो लगता है जो हमने भूगोल पढ़ते समय प्रकृति की देन मनोहारी ऋतुओं ,कलकल करती नदियों, हिमाच्छादित पहाड़ों, हरित वन्य प्रदेशों के विषय में पढ़ा था वो आज पूर्णतया परिवर्तित रूप में हमारे समक्ष है. प्रकृति का चक्र गड़बड़ा गया है?आज वैज्ञानिक , मौसम विज्ञानी सब चकित हैं,नित नवीन आकलन होते हैं,परन्तु प्रत्यक्ष रूप में परिणाम कुछ दूसरे ही रूप में दृष्टिगोचर होता है..यदि नयी पीढी को ये कहा जाय कि अभी कुछ ही समय पूर्व की बात है,कि मसूरी,नैनीताल तथा शिमला आदि पर्वतीय पर्यटन स्थलों पर पंखें,कूलर होते ही नहीं थे,तो क्या वो विश्वास कर सकेंगें.विश्व में किसी स्थल पर सुनामीभूकंप,,कभी जंगलों में लगती आग का भयावह दृश्य,वन्य पशु-पक्षियों की लुप्त होती या घटती प्रजातियाँ,, अनिष्ट की आशंकाएं जो आज पंडितों द्वारा नहीं अपितु आधुनिकतम विज्ञानं वेत्ताओं द्वारा की जा रही हैं.
वर्षा कब और कितनी होगी ,गर्मी कितनी पड़ेगी ,शीत कम रहेगा या अधिक ,कभी घाघ भड्डरी कवि अपने आकलनों से ही बता देते थे,कब क्या बोना चाहिए ,फसल काटने का सही समय आदि.प्रकृति का रूप इतना सरल था कि स्वयं निरक्षर कृषक प्रकृति के रूप को पहचान कर अपना कर्म पूर्ण करता था,और आज मौसम विभाग जहाँ पूर्ण शिक्षित व विषय विशेषज्ञ उपस्थित हैं ,को अपनी गणनाओं तथा अनुमानों पर भरोसा नहीं हो पाता.मौसम विभाग घोषणा करता है अति वृष्टि की, पता चला मानसून राह में ही अटक गया और वर्षा हुई नहीं.ग्रीष्म ऋतु में गर्मी न हो कर बाद में होती है,अर्थात अनिश्चितता .इस सब परिवर्तन के लिए कोई और नहीं हम ही उत्तरदायी हैं..