essay on railway platform ka drishya in hindi in about 80 to 100 words
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hey mate here is your answer
रेल्वे स्टेशन एक महत्वपूर्ण स्थान है । यहां पर रेलगाड़ियां आकर रुकती हैं जिससे की यात्री चढ़-उतर सकें । यहां से माल-असबाब भी इधर-उधर मालगाड़ियों से भेजा जाता है ।
दिन हो या रात, यहां पर हर समय चहल-पहल रहती है क्योंकि गाड़ियां और यात्त्री आते-जाते रहते हैं । यात्रियों का आना-जाना, फरोवालों की, आवाजें, गाड़ियों की गड़गड़ाहट और इंजनों की सीटियां आदि इसे शोरगुल वाला स्थान बना देती हैं । कभी-कभी तो यह शोरगुल और हड़बड़ी बड़ी बढ़ जाती हैं ।
रेलवे स्टेशन से सभी परिचित हैं । पिछले रवीवार मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जाने का अवसर मिला । वैसे ता मैं वहा कई बार गया हूं, परन्तु अकेले जाने का यह पहला अवसर था । मेरे चाचाजी को कलकत्ता से आना था । उनको लेने मैं वहां गया था । वे पहली बार दिल्ली आ रहे थे ।
स्टेशन के बाहर कारों, टैक्सियों, तिपहियां स्कूटरों, कुलियों, यात्रियों और फेरीवालों की बड़ी भीड़ थी । यात्री अपने सामान के साथ भागते हुए-से लग रहे थे । कुली सामान ले जाने में व्यस्त थे । टिकिट की खिड़कियों पर लम्बी-लम्बी कतारें थीं । अनेक लोग वहां किसी को लेने या छोड़ने आये थे । मैने एक प्लेटफॉर्म टिकिट खरीदा और अंदर चला गया ।
प्लेटफॉर्म टिकिट खरीदने में मुझे लगभग 20 मिनिट लग गये । प्लेटफॉर्म पर अपार भीड़ थी । यहां-वहां कई दुकाने थीं जिन पर पुस्तकें, चाय, मिठाइयां, भोजन, पान-बीड़ी आदि चीजें बिक रही थीं । अनेक फेरी वालें भी थे जो पुकार-पुकार कर अपना सामान बेच रहे थे । थोड़ी-थोड़ी देर में गाड़ियाँ आ-जा रही थीं ।
ऐसे समय तो जैसे भगदड़-सी मच जाती थी । लोग चढ़ने को उतावले रहते थे तो दूसरे उतरने को । ऐसे में धक्का-मुक्की हो जाती थी । महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों को बड़ी परेशानी हो रही थो । सामान्य और असुरक्षित (un-reserved) डिब्बों में तो हालत और भी खराब थी । गाडियां खचाखच भरी थीं । चाचाजी की गाड़ी आने में अभी आधे घंटे की देर थी ।
अत: में दृश्य का आनन्द लेने लगा । देश के सभी भागों से स्त्री-पुरुष वहां उपस्थित थे । उनके रंग-बिरंगे और विविध वस्त्र आकर्षक थे । वे सब अपने-अपने लहजों और बोलियों में बोल रहे थे । कुछ लोग अंग्रेजीं में भी बात कर रहे थे । लगता था जैसे एक छोटा-सा भारत ही वहां उपस्थित था ।
मैं एक चाय की स्टॉल पर गया और चाय पी । चाय गरम और स्वाद वाली थी । वहां और लोग भी खा-पी रहे थे । कुछ लोग ठंडे पेय का मजा ले रहे थे । प्लेटफार्म पर कहीं भी खाली जगह नहीं थी । कही पर कोई लेटा हुआ था, तो कहीं पर कोई बैठा या अधलेटा । बैंचे भी भरी हुई थी ।
टीटी, गार्ड, मैकेनिक और दूसरे कर्मचारी अपने-अपने काम में व्यस्त थे । पुलिस के लोग भी वहां गश्त लगा रहे थे । लाउड-स्पीकर पर गाड़ियों के आने-जाने की सूचना दी जा रही थी । न जाने कब आधा घंटा बी गया और चाचा जी की राजधानी एक्सप्रेस धड़धड़ाती हुई प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुइ । मैं सजग होकर देखने लगा । चाचाजी डिब्बे के दरवाजे में खड़े नजर आये । मैंने हाथ हिलाया और उन्होंने तुरंत उत्तर में अपना हाथ हिलाया । गाड़ी रुकने से पूर्व ही मैं उनके पास पहुंच गया ।
सामान कुली को पकड़ाया और हम प्लेटफार्म से बाहर आ गये । एक टैक्सी की और घर के लिए रवाना हो गये । रास्ते में भी बड़ा ट्रैफिक था और हमारी टैक्सी को जगह-जगह रुकना पड़ा । अंतत: हम घर पहुंच गये और हमने चैन की सांस ली । परंतु रेलवे स्टेशन का वह दृश्य मेरे लिए स्मरणीय बन गया अपनी विविधता और विचित्रता में ।
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रेल्वे स्टेशन एक महत्वपूर्ण स्थान है । यहां पर रेलगाड़ियां आकर रुकती हैं जिससे की यात्री चढ़-उतर सकें । यहां से माल-असबाब भी इधर-उधर मालगाड़ियों से भेजा जाता है ।
दिन हो या रात, यहां पर हर समय चहल-पहल रहती है क्योंकि गाड़ियां और यात्त्री आते-जाते रहते हैं । यात्रियों का आना-जाना, फरोवालों की, आवाजें, गाड़ियों की गड़गड़ाहट और इंजनों की सीटियां आदि इसे शोरगुल वाला स्थान बना देती हैं । कभी-कभी तो यह शोरगुल और हड़बड़ी बड़ी बढ़ जाती हैं ।
रेलवे स्टेशन से सभी परिचित हैं । पिछले रवीवार मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जाने का अवसर मिला । वैसे ता मैं वहा कई बार गया हूं, परन्तु अकेले जाने का यह पहला अवसर था । मेरे चाचाजी को कलकत्ता से आना था । उनको लेने मैं वहां गया था । वे पहली बार दिल्ली आ रहे थे ।
स्टेशन के बाहर कारों, टैक्सियों, तिपहियां स्कूटरों, कुलियों, यात्रियों और फेरीवालों की बड़ी भीड़ थी । यात्री अपने सामान के साथ भागते हुए-से लग रहे थे । कुली सामान ले जाने में व्यस्त थे । टिकिट की खिड़कियों पर लम्बी-लम्बी कतारें थीं । अनेक लोग वहां किसी को लेने या छोड़ने आये थे । मैने एक प्लेटफॉर्म टिकिट खरीदा और अंदर चला गया ।
प्लेटफॉर्म टिकिट खरीदने में मुझे लगभग 20 मिनिट लग गये । प्लेटफॉर्म पर अपार भीड़ थी । यहां-वहां कई दुकाने थीं जिन पर पुस्तकें, चाय, मिठाइयां, भोजन, पान-बीड़ी आदि चीजें बिक रही थीं । अनेक फेरी वालें भी थे जो पुकार-पुकार कर अपना सामान बेच रहे थे । थोड़ी-थोड़ी देर में गाड़ियाँ आ-जा रही थीं ।
ऐसे समय तो जैसे भगदड़-सी मच जाती थी । लोग चढ़ने को उतावले रहते थे तो दूसरे उतरने को । ऐसे में धक्का-मुक्की हो जाती थी । महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों को बड़ी परेशानी हो रही थो । सामान्य और असुरक्षित (un-reserved) डिब्बों में तो हालत और भी खराब थी । गाडियां खचाखच भरी थीं । चाचाजी की गाड़ी आने में अभी आधे घंटे की देर थी ।
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मैं एक चाय की स्टॉल पर गया और चाय पी । चाय गरम और स्वाद वाली थी । वहां और लोग भी खा-पी रहे थे । कुछ लोग ठंडे पेय का मजा ले रहे थे । प्लेटफार्म पर कहीं भी खाली जगह नहीं थी । कही पर कोई लेटा हुआ था, तो कहीं पर कोई बैठा या अधलेटा । बैंचे भी भरी हुई थी ।
टीटी, गार्ड, मैकेनिक और दूसरे कर्मचारी अपने-अपने काम में व्यस्त थे । पुलिस के लोग भी वहां गश्त लगा रहे थे । लाउड-स्पीकर पर गाड़ियों के आने-जाने की सूचना दी जा रही थी । न जाने कब आधा घंटा बी गया और चाचा जी की राजधानी एक्सप्रेस धड़धड़ाती हुई प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुइ । मैं सजग होकर देखने लगा । चाचाजी डिब्बे के दरवाजे में खड़े नजर आये । मैंने हाथ हिलाया और उन्होंने तुरंत उत्तर में अपना हाथ हिलाया । गाड़ी रुकने से पूर्व ही मैं उनके पास पहुंच गया ।
सामान कुली को पकड़ाया और हम प्लेटफार्म से बाहर आ गये । एक टैक्सी की और घर के लिए रवाना हो गये । रास्ते में भी बड़ा ट्रैफिक था और हमारी टैक्सी को जगह-जगह रुकना पड़ा । अंतत: हम घर पहुंच गये और हमने चैन की सांस ली । परंतु रेलवे स्टेशन का वह दृश्य मेरे लिए स्मरणीय बन गया अपनी विविधता और विचित्रता में ।
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