♻️ Essay on स्वयं सधु रेंगे –जग सधु रेगा ( Hindi 200 words )
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ज्यादातर आदमी एक सीमित दायरे में ही सोचता है। उस दायरे में आता है उसका शारीरिक स्वास्थ्य, पारिवारिक सुख और शांति दूसरों को सुखी बनाने की बात तो वह सोच ही नहीं पाता।
ज्यादातर आदमी एक सीमित दायरे में ही सोचता है। उस दायरे में आता है उसका शारीरिक स्वास्थ्य, पारिवारिक सुख और शांति दूसरों को सुखी बनाने की बात तो वह सोच ही नहीं पाता। इसलिए दुनिया में दु:ख बहुत है। हमें दूसरों के बारे में सोचना चाहिये। दूसरों को सुखी करने से जो सुख हमें मिलेगा वह बहुत कीमती होगा। सुख का कोई पैमाना नहीं है। सुख एक आत्मतृप्ति है। जिसकी किसी चीज से तुलना नहीं हो सकती। हमारे पास समय बहुत होती है पर हम उसे यूं ही बरबाद कर देते हैं। गंवा देते हैं और कहा भी है कि बहा हुआ पानी और बीता हुआ समय वापस नहीं आते। क्या हम पांच मिनट भी नहीं निकाल सकते हैं। बस उत्कृष्ट इच्छा होनी चाहिए। इरादे नेक हो तो सब कुछ हो सकता है।
हमारे पास एक से एक उदाहरण है। आदमयुग को छोड़ भी दें तो पौराणिककाल ऐतिहासिक काल और आधुनिक समय में अनुकरणीय लोग पैदा होते रहे हैं। यह दुनिया विचित्रताओं में भरी हुई है। कहां से मानव सभ्यता का दौर चला और आज किस मोड़ पर है। मांग न जाने क्या-क्या होगा। बस दुनिया चलते रहना चाहिये। चलती रहेगी तो कहीं न कहीं पहुंचेगी ही। इसलिए चलना बंद न करें। शरीर तो मन का अनुगामी है। ज्यादातर मन के इशारों पर ही चलता है। एक से एक अच्छे और एक से एक बुरे काम करता है। वह स्वयं ही स्वयं पर प्रतिबंध लगा सकता है। दूसरे का लगाया प्रतिबंध इतना कारगर नहीं होगा। आत्मचिन्तन, आत्ममंथन के लिये थोड़ा समय अवश्य निकालें। आत्मसुधार संभव है। पीछे देखें पर अपनी गल्तियों और कमजोरियों का जायजा लें। सबसे पहली शुरूआत स्वयं से करें।
दुनिया को सुधारने का जिम्मा हमारा नहीं है। कहा भी है स्वयं सुधरेंगे, जग सुधरेगा। गायत्री अभियान का यह नारा है। इसे आत्मसात करें और आगे बढ़ें। दूसरों को यथासम्भव सुखी बनायें। दूसरों को सुखी बनाने में जो आत्मशांति मिलेगी वह एक दुर्लभ चीज है। तो बढ़ें आगे। सिर्फ सोचकर ही न रह जायें। बस यही संदेश है।
ᴍʀꜱᴏᴠᴇʀᴇɪɢɴ࿐
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