essay on sahitya aur samaj
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साहित्य संस्कृत के" सहित शब्द से बना है। साहित्य की उत्पति को संस्कृत साहित्य के आचार्यों ने “हितेन सह सहित तस्य भवः” की संज्ञा दिए हैं किसका अर्थ है कल्याणकारी भाव। साहित्य में जीवन एवं जगत का कल्याण होना अनिवार्य है क्योंकि इसमें सहित की भाव होती है, जो लोक जीवन के कल्याणकारी भाव को सम्पादन करता हैं। साहित्य के हर क्षेत्र में शब्द एवं अर्थ के योग के साथ-साथ लोक कल्याण की भावना का होना आवश्यक है। संस्कृत में सहित शब्द का दो अर्थ होता है, एक स्वभाव एवं दूसरा हितयुक्त अर्थात स्वभाव एवं हित का संतुलित रूप ही साहित्य है। साहित्य शब्द की व्युत्पति ने ही इसे लोगों के साथ जोड़ा है क्योंकि लोक साहित्य में लोक का अर्थ व्यापक एवं विस्तृत होता है। पर हम इसे साधारण अर्थ में समाज कह सकते हैं।
यह संसार एक समाज है जो हमेशा साहित्य समाज के हित की कामना करता है। यदि समाज शरीर है तो साहित्य उसकी आत्मा। अगर देखा जाए तो साहित्य मनुष्य के मस्तिष्क से उत्पन्न होता है क्योंकि मनुष्य समाज का अभिन्न अंग है। जन्म से मृत्यु तक मनुष्य समाज जुड़ा रहता है वह चाह कर भी समाज से अलग नहीं हो सकता है। उसका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा तथा जीवन का निर्वाह समाज द्वारा ही होता है। मनुष्य समाज में रहकर अनेक प्रकार का अनुभव ग्रहण करता है एवं जब वह प्राप्त अनुभव को शब्द द्वारा अभिव्यक्त करता है तो वह साहित्य बन जाता है। और यही अभिव्यक्ति की शक्ति उस व्यक्ति को आगे चलकर साहित्यकार बना देता है। अतः जैसा समाज होता है वैसा ही साहित्यकार की रचना होती है और वैसे ही समाज की झलक उस साहित्यकार में देखने को मिलता है। साहित्य एवं समाज का संबंध युगों-युगों से देखा गया है दूसरे अर्थ में कहे तो साहित्य एवं समाज एक ही सिक्के के दो पहलू एवं एक दूसरे के पूरक भी हैं। साहित्य का सृजन समाज के लिए एवं समाज द्वारा ही होता है इसीलिए तो कहते हैं, साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य का सृजन मानव पटल में होता है क्योंकि यह एक कला है।
यह कल्पना द्वारा पूर्ण होता है पर मानव कल्पना जीवन एवं जगत के अनुभव से प्राप्त करता है और वह अनुभव समाज से प्राप्त होता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है और वह समाज से हर पल नए-नए अनुभव प्राप्त करता है एवं प्रत्येक अनुभवों को कल्पना के माध्यम द्वारा मनुष्य अपने कला को सृजित करता है इसी कारण प्रसिद्ध ग्रीस आचार्य एरिस टोटल ने साहित्य को जीवन एवं जगत का अनुकरण मानते थे। उनके मतानुसार साहित्य जीवन एवं जगत का नकल है। जीवन एवं जगत में हो रहे घटनाओं को साहित्यकार अपने कला से नकल करता है एवं फिर से उसी समाज को लौटा देता है। साहित्यकार जिस समाज एवं वातावरण में रहते हैं उस समाज एवं वातावरण की सभी स्थितियाँ उसे हमेशा प्रभावित करते रहता है। साहित्यकार अपने रचना के जरिए जो भी समाज को देना चाहत है उसे वह बड़ी ही चतुराई से प्रस्तुत करता है एवं समाज के प्रत्येक सुख-दुख एवं समयाओं का चित्र समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। समाज का उत्थान-पतन, समाज की रीति-रिवाज, आस्था एवं संस्कृति स्पष्ट रूप में साहित्य में अपना प्रभाव डालता रहता है।
साहित्य भी समाज के परिवर्तित स्वरूप के साथ बदलता रहता है। आधुनिक संदर्भ में भी साहित्य एवं समाज में परस्पर संबंध है। दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं। समाज में हो रहे विसंगति एवं विकृति, प्रगति, उपलब्धि, अभाव, विसमता, समानता, सौंदर्यता, प्रेम, स्नेह, मातृत्व, देशप्रेम, विश्व बंधुत्व जैसे विविध पक्षों को साहित्यकार अपने साहित्य में सृजित करते हैं, जो नितांत लोकहित के लिए होता है। जिस प्रकार से समाज का प्रभाव साहित्य के ऊपर पड़ता है वैसे ही साहित्य का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। क्योंकि कवि अथवा लेखक समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, अतः वे लोग समाज को अपने नवीन विचार प्रदान करते रहते हैं। जब समाज में कोई समस्या आती है, समाजिक जीवन मूल्य का पतन होने लगता है तब साहित्य ही उसे दूर करने में अपनी भूमिका निर्वाह करता है। ऐसे समय में साहित्यकार समाज को नया रास्ता दिखाने का काम करता है। साहित्य के द्वारा राजनीतिक, सामाजिक एवं सनाकृतिक परिवर्तनों को देखा जाता है। आज विश्व में धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, अलगाववाद तथा आतंकवाद गंभीर समस्याओं के विनाश के लिए साहित्य प्रयत्नशील है।
सहियाकार साहित्य का सृजन अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि समाज के उपयोग के लिए करता है। चाहे वह ऋग्वेदिक रचनाकार हो या वह वेदव्यास का भागवतगीता हो या फिर बाल्मीकी का रामायण, शेक्सपियर का नाटक, एरिस्टोटल का काव्यशास्त्र ही हो सभी समाज के उपयोग एवं मार्ग दर्शन के लिए सृजित किए गए थे।
यह संसार एक समाज है जो हमेशा साहित्य समाज के हित की कामना करता है। यदि समाज शरीर है तो साहित्य उसकी आत्मा। अगर देखा जाए तो साहित्य मनुष्य के मस्तिष्क से उत्पन्न होता है क्योंकि मनुष्य समाज का अभिन्न अंग है। जन्म से मृत्यु तक मनुष्य समाज जुड़ा रहता है वह चाह कर भी समाज से अलग नहीं हो सकता है। उसका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा तथा जीवन का निर्वाह समाज द्वारा ही होता है। मनुष्य समाज में रहकर अनेक प्रकार का अनुभव ग्रहण करता है एवं जब वह प्राप्त अनुभव को शब्द द्वारा अभिव्यक्त करता है तो वह साहित्य बन जाता है। और यही अभिव्यक्ति की शक्ति उस व्यक्ति को आगे चलकर साहित्यकार बना देता है। अतः जैसा समाज होता है वैसा ही साहित्यकार की रचना होती है और वैसे ही समाज की झलक उस साहित्यकार में देखने को मिलता है। साहित्य एवं समाज का संबंध युगों-युगों से देखा गया है दूसरे अर्थ में कहे तो साहित्य एवं समाज एक ही सिक्के के दो पहलू एवं एक दूसरे के पूरक भी हैं। साहित्य का सृजन समाज के लिए एवं समाज द्वारा ही होता है इसीलिए तो कहते हैं, साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य का सृजन मानव पटल में होता है क्योंकि यह एक कला है।
यह कल्पना द्वारा पूर्ण होता है पर मानव कल्पना जीवन एवं जगत के अनुभव से प्राप्त करता है और वह अनुभव समाज से प्राप्त होता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है और वह समाज से हर पल नए-नए अनुभव प्राप्त करता है एवं प्रत्येक अनुभवों को कल्पना के माध्यम द्वारा मनुष्य अपने कला को सृजित करता है इसी कारण प्रसिद्ध ग्रीस आचार्य एरिस टोटल ने साहित्य को जीवन एवं जगत का अनुकरण मानते थे। उनके मतानुसार साहित्य जीवन एवं जगत का नकल है। जीवन एवं जगत में हो रहे घटनाओं को साहित्यकार अपने कला से नकल करता है एवं फिर से उसी समाज को लौटा देता है। साहित्यकार जिस समाज एवं वातावरण में रहते हैं उस समाज एवं वातावरण की सभी स्थितियाँ उसे हमेशा प्रभावित करते रहता है। साहित्यकार अपने रचना के जरिए जो भी समाज को देना चाहत है उसे वह बड़ी ही चतुराई से प्रस्तुत करता है एवं समाज के प्रत्येक सुख-दुख एवं समयाओं का चित्र समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। समाज का उत्थान-पतन, समाज की रीति-रिवाज, आस्था एवं संस्कृति स्पष्ट रूप में साहित्य में अपना प्रभाव डालता रहता है।
साहित्य भी समाज के परिवर्तित स्वरूप के साथ बदलता रहता है। आधुनिक संदर्भ में भी साहित्य एवं समाज में परस्पर संबंध है। दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं। समाज में हो रहे विसंगति एवं विकृति, प्रगति, उपलब्धि, अभाव, विसमता, समानता, सौंदर्यता, प्रेम, स्नेह, मातृत्व, देशप्रेम, विश्व बंधुत्व जैसे विविध पक्षों को साहित्यकार अपने साहित्य में सृजित करते हैं, जो नितांत लोकहित के लिए होता है। जिस प्रकार से समाज का प्रभाव साहित्य के ऊपर पड़ता है वैसे ही साहित्य का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। क्योंकि कवि अथवा लेखक समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, अतः वे लोग समाज को अपने नवीन विचार प्रदान करते रहते हैं। जब समाज में कोई समस्या आती है, समाजिक जीवन मूल्य का पतन होने लगता है तब साहित्य ही उसे दूर करने में अपनी भूमिका निर्वाह करता है। ऐसे समय में साहित्यकार समाज को नया रास्ता दिखाने का काम करता है। साहित्य के द्वारा राजनीतिक, सामाजिक एवं सनाकृतिक परिवर्तनों को देखा जाता है। आज विश्व में धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, अलगाववाद तथा आतंकवाद गंभीर समस्याओं के विनाश के लिए साहित्य प्रयत्नशील है।
सहियाकार साहित्य का सृजन अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि समाज के उपयोग के लिए करता है। चाहे वह ऋग्वेदिक रचनाकार हो या वह वेदव्यास का भागवतगीता हो या फिर बाल्मीकी का रामायण, शेक्सपियर का नाटक, एरिस्टोटल का काव्यशास्त्र ही हो सभी समाज के उपयोग एवं मार्ग दर्शन के लिए सृजित किए गए थे।
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