Hindi, asked by psuraj3140, 1 year ago

essay on sangti ka fal

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Answered by Chaudhary47
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Nibandh


सत्संगति शब्द से अभिप्राय है अच्छे लोगों की संगति में रहना। उनके अच्छे विचारों को अपने जीवन में उतारना तथा उनकी अच्छी आदतों को अपनाना। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए अन्य मनुष्यों का संग ढूंढता है। यह संगति जो उसे मिलती है, वह अच्छी भी हो सकती है तथा बुरी भी। यदि उसे अच्छी संगति मिल गई तो उसका जीवन सुखपूर्वक बीतता है। यदि संगति बुरी हुई तो जीवन दुखदाई हो जाता है। अतः मनुष्य जैसी संगति में रहता है, उस पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है। 


एक ही स्वाति बूंद केले के गर्भ में पड़कर कपूर बन जाती है, सीप में पड़कर मोती बन जाती है और अगर सांप के मुंह में पड़ पड़ जाए तो विष बन जाती है। पारस के छूने से लोहा सोना बन जाता है, पुष्प की संगति में रहने से कीड़ा भी देवताओं के मस्तक पर चढ़ जाता है। महर्षि वाल्मीकि नामक एक ब्राह्मण थे, किंतु भीलों की संगति में रहकर वह डाकू बन गए। बाद में वही डाकू महर्षि नारद की संगति से तपस्वी बनकर महर्षि वाल्मीकि नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार अंगुलीमाल नामक भयंकर डाकू भगवान बुद्ध की संगति पाकर महात्मा बन गया। उत्तम व्यक्तियों के संपर्क में आने से सदगुण स्वयं ही आ जाते हैं। गंदे जल का नाला भी पवित्र पावन भागीरथी में मिलकर गंगाजल बन जाता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है – जैसी संगति बैठिए तैसी ही फल दीन 


उन्नति करने वाले व्यक्ति को अपने इर्द-गिर्द के समाज के साथ बड़े सोच-विचारकर संपर्क स्थापित करना चाहिए, क्योंकि मानव मन तथा जल का स्वभाव एक जैसा होता है। यह दोनों जब गिरते हैं, तो तेजी से गिरते हैं, परंतु इन्हें ऊपर उठाने में बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है। बुरे व्यक्ति का समाज में बिल्कुल भी आदर नहीं होता। कुसंगति काम, क्रोध, मोह और मद पैदा करने वाली होती है। अतः प्रत्येक मानव को कुसंगति से दूर रहना चाहिए क्योंकि उन्नति की एकमात्र सीढ़ी सत्संगति है। बुद्धिमान व्यक्ति को सत्संगति की पतवार से अपने जीवनरूपी नौका को भवसागर पार लगाने का प्रयत्न करना चाहिए तभी वह ऊंचे से ऊंचे पहुंच सकता है और समाज में सम्मान प्राप्त कर सकता है

Answered by Anonymous
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Explanation:

पुराने समय की बात है। एक राज्य में एक राजा था। किसी कारण से वह अन्य गाँव में जाना चाहता था। एक दिन वह धनुष-बाण सहित पैदल ही चल पड़ा। चलते-चलते राजा थक गया। अत: वह बीच रास्ते में ही एक विशाल पेड़ के नीचे बैठ गया। राजा अपने धनुष-बाण बगल में रखकर, चद्दर ओढ़कर सो गया। थोड़ी ही देर में उसे गहरी नींद लग गई।

उसी पेड़ की खाली डाली पर एक कौआ बैठा था। उसने नीचे सोए हुए राजा पर बीट कर दी। बीट से राजा की चादर गंदी हो गई थी। राजा खर्राटे ले रहा था। उसे पता नहीं चला कि उसकी चादर खराब हो गई है।

कुछ समय के पश्चात कौआ वहाँ से उड़कर चला गया और थोड़ी ही देर में एक हंस उड़ता हुआ आया। हंस उसी डाली पर और उसी जगह पर बैठा, जहाँ पहले वह कौआ बैठा हुआ था अब अचानक राजा की नींद खुली। उठते ही जब उसने अपनी चादर देखी तो वह बीट से गंदी हो चुकी थी।

राजा स्वभाव से बड़ा क्रोधी था। उसकी नजर ऊपर वाली डाली पर गई, जहाँ हंस बैठा हुआ था। राजा ने समझा कि यह सब इसी हंस की ओछी हरकत है। इसी ने मेरी चादर गंदी की है।

क्रोधी राजा ने आव देखा न ताव, ऊपर बैठे हंस को अपना तीखा बाण चलाकर, उसे घायल कर दिया। हंस बेचारा घायल होकर नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा। वह तड़पते हुए राजा से कहने लगा-

' अहं काको हतो राजन्!

हंसाऽहंनिर्मला जल:।

दुष्ट स्थान प्रभावेन,

जातो जन्म निरर्थक।।'

अर्थात हे राजन्! मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया, तुमने मुझे अपने तीखे बाणों का निशाना बनाया है? मैं तो निर्मल जल में रहने वाला प्राणी हूँ? ईश्वर की कैसी लीला है। सिर्फ एक बार कौए जैसे दुष्ट प्राणी की जगह पर बैठने मात्र से ही व्यर्थ में मेरे प्राण चले जा रहे हैं, फिर दुष्टों के साथ सदा रहने वालों का क्या हाल होता होगा?

हंस ने प्राण छोड़ने से पूर्व कहा - 'हे राजन्! दुष्टों की संगति नहीं करना। क्योंकि उनकी संगति का फल भी ऐसा ही होता है।' राजा को अपने किए अपराध का बोध हो गया। वह अब पश्चाताप करने लगा।

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