essay on sharikaran ke dushprabhav
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शहरीकरण के कुप्रभाव
Shaharikaran ke Kuprabhav
यह एक स्वाभाविक एंव प्राकृतिक नियम है कि क्रमश: गांव-कस्बों में और कस्बे ही विकास करके शहरों के रूप धारण कर लिया करते हैं। शहर या नगर विकास की प्रक्रिया में पडक़र महानगरों का रूप धारण कर लिया करते हैं। सृष्टि का अब तक का विकास-क्रम इसी नियम का साकार स्वरूप है। हम भारत की राजधानी दिल्ली का उदाहरण भी ले सकते हैं। सन 1947 में जब भार स्वतंत्र हुआ, परकोटे में घिरी दिल्ली ही दिल्ली थी। हां, नई दिल्ली का अपना अलग और सीमित-सा आकार-प्रकार अवश्य बनने और उभरने लगा था। उन दिनों दरियागंज जैसे इलाके में दिन के चौड़े प्रकाश में भी बातचीत करने के लिए आदमी खोजना पड़ता था। वाहनों में से तो इक्का-तांगा और साइकिल आदि ही इधर-उधर आते-जाते दिखाई दिया करते थे। सारे दिन में यदि एक-आध कार सडक़ पर दिखाई दे जाती, तो उसे देखकर आश्र्चमिश्रित आनंद का अनुभव किया जाता था। परंतु आज? तब की परिस्थितियों में आज गुणात्मक जिसे आकाश-पाताल का अंतर कहा जाता है, वह आ चुका है। तब आदमी खोजना पड़ता था, आज आदमी से बचना ओर बचकर चलना पड़ता है। तब सडक़ पार करने के लिए बार दस-पंद्रह मिनटों तक प्रतीक्षा करनी पड़ जाती है। पार करते समय तेजी और सावधानी से गुजरना पड़ता है। वह सब देख-सुन प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? सहज उत्तर है कि लोगों में शहरों-नगरों के प्रति आकर्षण तो बढ़ा ही है, कुछ परिस्थितियां भी ऐसी हो गई कि देहातों और कस्बों में परंपरागत उद्योग-धंधे और रोजी-रोटी की जुगाड़ न होने के कारण लोगों को नगरों की तरफ आना पडऩे लगा। इस परिस्थिति ने जहां नगरों को महानगर बना दिया है, वहां कस्बों और गांवों का शहरीकरण करना भी साथ ही आरंभ कर दिया है।
शहरीकरण का एक अन्य कारण भी है। कस्बों का शहर और शहरों का नगर और महानगरों में परिवर्तन होने का अर्थ है आबादी का दबाव बढऩा। उस दबाव को झेलने के लिए आवश्यक है कि कस्बों-शहरों आदि का विकास हो। होना तो यह चाहिए था कि विकास की प्रक्रिया नियोजित रूप से चलती, परंतु ऐसा न होकर सभी कुछ अनियोजित ही अधिक हुआ एंव अब भी लगातार हो रहा है। विकास का अर्थ फैला भी है। सो कस्बों-नगरों का फैलाव कुछ इस प्रकार हुआ है कि मीलों दूर के गांव भी उस विकास में समाकर अपना भौतिक अस्तित्व एंव स्वरूप ही नहीं आंतरिक या सांस्कृतिक स्वरूप भी गंवा चुके हैं। जो हो, विकास की प्रक्रिया को एक प्रकार से उचित एंव एनिवार्य ही कहा जाएगा। परंतु इस प्रकार के विकास या गांवों के शहरीकरण के कुप्रभाव सामने तब आते हैं, जब सब कुछ अनियोजित होने के कारण उन सुविधाओं का भी अभाव हे जाता या हो गया है प्राथमिक स्तर पर शहरों में जिनका होना अनिवार्य माना गया है। जैसे आबादयिों के उचित उचित रूप से शौच आदि निवृत्त होने की व्यवस्था, पीने के पानी की व्यवस्था, सफाई की व्यवस्था, बिजली की व्यवस्था, खुले हवादार आवासों की व्यवस्था, स्कूलों, पार्कों, स्वास्थ्य एंव मनोरंजन केंद्रों की व्यवस्था आदि। इस प्रकार की व्यवस्थाओं का अभाव किस प्रकार के कुप्रभाव डालता और कौन-कौन सी समस्यांए खड़ी कर देता है, यह हम दिल्ली जैसे महानगरों में तो रात-दिन अनुभव करते ही है, उन कस्बों में भी अनुभ्ज्ञव करते हैं जहां कुछ औद्योगिक विकास करके जो शहर बन गए या फिर बनने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।
Shaharikaran ke Kuprabhav
यह एक स्वाभाविक एंव प्राकृतिक नियम है कि क्रमश: गांव-कस्बों में और कस्बे ही विकास करके शहरों के रूप धारण कर लिया करते हैं। शहर या नगर विकास की प्रक्रिया में पडक़र महानगरों का रूप धारण कर लिया करते हैं। सृष्टि का अब तक का विकास-क्रम इसी नियम का साकार स्वरूप है। हम भारत की राजधानी दिल्ली का उदाहरण भी ले सकते हैं। सन 1947 में जब भार स्वतंत्र हुआ, परकोटे में घिरी दिल्ली ही दिल्ली थी। हां, नई दिल्ली का अपना अलग और सीमित-सा आकार-प्रकार अवश्य बनने और उभरने लगा था। उन दिनों दरियागंज जैसे इलाके में दिन के चौड़े प्रकाश में भी बातचीत करने के लिए आदमी खोजना पड़ता था। वाहनों में से तो इक्का-तांगा और साइकिल आदि ही इधर-उधर आते-जाते दिखाई दिया करते थे। सारे दिन में यदि एक-आध कार सडक़ पर दिखाई दे जाती, तो उसे देखकर आश्र्चमिश्रित आनंद का अनुभव किया जाता था। परंतु आज? तब की परिस्थितियों में आज गुणात्मक जिसे आकाश-पाताल का अंतर कहा जाता है, वह आ चुका है। तब आदमी खोजना पड़ता था, आज आदमी से बचना ओर बचकर चलना पड़ता है। तब सडक़ पार करने के लिए बार दस-पंद्रह मिनटों तक प्रतीक्षा करनी पड़ जाती है। पार करते समय तेजी और सावधानी से गुजरना पड़ता है। वह सब देख-सुन प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? सहज उत्तर है कि लोगों में शहरों-नगरों के प्रति आकर्षण तो बढ़ा ही है, कुछ परिस्थितियां भी ऐसी हो गई कि देहातों और कस्बों में परंपरागत उद्योग-धंधे और रोजी-रोटी की जुगाड़ न होने के कारण लोगों को नगरों की तरफ आना पडऩे लगा। इस परिस्थिति ने जहां नगरों को महानगर बना दिया है, वहां कस्बों और गांवों का शहरीकरण करना भी साथ ही आरंभ कर दिया है।
शहरीकरण का एक अन्य कारण भी है। कस्बों का शहर और शहरों का नगर और महानगरों में परिवर्तन होने का अर्थ है आबादी का दबाव बढऩा। उस दबाव को झेलने के लिए आवश्यक है कि कस्बों-शहरों आदि का विकास हो। होना तो यह चाहिए था कि विकास की प्रक्रिया नियोजित रूप से चलती, परंतु ऐसा न होकर सभी कुछ अनियोजित ही अधिक हुआ एंव अब भी लगातार हो रहा है। विकास का अर्थ फैला भी है। सो कस्बों-नगरों का फैलाव कुछ इस प्रकार हुआ है कि मीलों दूर के गांव भी उस विकास में समाकर अपना भौतिक अस्तित्व एंव स्वरूप ही नहीं आंतरिक या सांस्कृतिक स्वरूप भी गंवा चुके हैं। जो हो, विकास की प्रक्रिया को एक प्रकार से उचित एंव एनिवार्य ही कहा जाएगा। परंतु इस प्रकार के विकास या गांवों के शहरीकरण के कुप्रभाव सामने तब आते हैं, जब सब कुछ अनियोजित होने के कारण उन सुविधाओं का भी अभाव हे जाता या हो गया है प्राथमिक स्तर पर शहरों में जिनका होना अनिवार्य माना गया है। जैसे आबादयिों के उचित उचित रूप से शौच आदि निवृत्त होने की व्यवस्था, पीने के पानी की व्यवस्था, सफाई की व्यवस्था, बिजली की व्यवस्था, खुले हवादार आवासों की व्यवस्था, स्कूलों, पार्कों, स्वास्थ्य एंव मनोरंजन केंद्रों की व्यवस्था आदि। इस प्रकार की व्यवस्थाओं का अभाव किस प्रकार के कुप्रभाव डालता और कौन-कौन सी समस्यांए खड़ी कर देता है, यह हम दिल्ली जैसे महानगरों में तो रात-दिन अनुभव करते ही है, उन कस्बों में भी अनुभ्ज्ञव करते हैं जहां कुछ औद्योगिक विकास करके जो शहर बन गए या फिर बनने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।
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