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वर्तमान समय में लोग कहते हैं कि गुरु व शिष्य के बीच सेवा भाव का लोप हो गया है। लेकिन ऐसा नहीं है। गुरु अपने शिष्य को विद्यालय से अलग बुलाकर विशेष तरीके से उसको शिक्षित करता है। शिष्य भी अपने कत्र्तव्य से पीछे नहीं हटता है। अपने गुरु व गुरुजी के घर के सारे कामों को बखूबी जिम्मेदारी से करता है। आधुनिक गुरु अर्थात अध्यापक लोग अपने शिष्यों यानी छात्रों के लिये विशेष शिक्षा केन्द्रजैसे कोचिंग सेण्टर व इंस्टीट्यूट जैसे कुटीर व लघु शिक्षा केन्द्रों (उद्योग धन्धों) का शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। इस प्रक्रिया को वह लोग निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ाते भी जा रहे हैं।
हमारे देश में कई वेद, शास्त्र व पुराण अनेक विद्वानों द्वारा लिखे गये। लेकिन इस कोचिंग व्यवस्था पर कोई ग्रन्थ या पुराण नहीं लिखा गया। शास्त्रों की बखिया उधेडऩे वाले उन विद्वानों के लिए यह डूब मरने की बात है जिन्होंने वेदों में प्रमुख ऋगुवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और शास्त्रों और पुराणों में अग्निपुराण, भागवतपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, गरुणपुराण, कर्मपुराण, लिंगपुराण, मारकाण्डेय पुराण, मतस्यपुराण, नारद पुराण, नरसिह्मापुराण, पदमपुराण, शिवपुराण, स्कन्द पुराण, वैवत्रपुराण, वामन पुराण, वारहपुराण, विष्णुपुराण। लेकिन कलयुग के इस आधुनिक युग के लिये एक बेहद जरूरी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखना भूल गये। जिसका नाम मेरे हिसाब से कोचिंग सेण्टर या फिर लघु व कुटीर उद्योग शिक्षा-शास्त्र/पुराण होना चाहिये।
हमारे आधुनिक अध्यापक इस ग्रन्थ की उपयोगिता व आवश्यकता को समझते हुये इसकी नींव रख दी है। वे छात्रों को कोचिंग पढऩे के लिये अपने नवीनतम तरीकों से मजबूर करते रहते हैं।
इसके कई तरीके हैं- कक्षा में देर से आना, कक्षा में पहुँचकर माथा पकड़कर बैठ जाना। एकाध सवाल समझाकर सारे कठिन सवाल गृह-कार्य के रूप में देना। यदि छात्र कक्षा में कुछ पूछे तो - 'कक्षा के बाद पूछ लेना' कह देना। कक्षा के बाद पूछे तो 'घर आओ तब ही ढंग से बताया जा सकता है।' दूसरी विधि-छमाही परीक्षा में चार-पाँच को छोड़ बाकी छात्रों को फेल कर देना। फिर देखिए सुबह-शाम छात्रों की भीड़ अध्यापकों के घर में दिखने लगती है।
अभिभावक लोग अध्यापक से न जाने क्यों जलते हैं? जो अपनी ही आग में जला जा रहा है उस बेचारे से क्या जलना? राम तो विष्णु के अवतार थे उन्हें भी गुरु के घर जाना पड़ा। यह कारण था कि अल्पकाल में ही उन्होंने सारी विद्याएँ प्राप्त कर लीं थीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इस बात की पुष्टि की है- गुरु गृह गए पढऩ रघुराई। अल्पकाल विद्या सब पाई। जब भगवान का यह हाल था तो भला आज के छात्र की क्या औकात कि वह अपने विषय के अध्यापक से विशेष प्रकार की शिक्षा ग्रहण (ट्यूशन न पढ़े) न करे।
कलयुगी अध्यापकों ने अपनी काबिलियत और ज्ञान को बेचना अपना पेशा बना लिया है। ये कोचिंग सेण्टर के नाम से अपनी दुकानें चलाते हैं। कुछ लोग यह काम बड़े स्तर पर करते हैं। इसके लिये वे इंस्टीट्यूट नामक बड़े उद्योग की शुरूआत करते हैं।
इस प्रकार जब उनकी दुकानें चल निकलती हैं तो दो शिफ्टों में सुबह और शाम को वास्तविक पढ़ाई शुरू हो जाती है। गुरु जी पढ़ाते समय विभिन्न दैनिक एवं पारिवारिक कार्यों को भी संपन्न करते रहते हैं, अच्छा भी है-एक पंथ दो काज।कुछ लोग कहते हैं कि छात्रों के हृदय से सेवा-भावना का लोप हो रहा है। इन गैर सरकारी 'कुटीर एवं लघु शिक्षा केन्द्रों व इंस्टीट्यूट जैसे बड़ी उद्योग फर्मों का निरीक्षण करें तो उन्हें अपनी विचारधारा बदल देनी पड़ेगी। सुबह के समय एक छात्र डेरी से दूध ला रहा है। दूसरा छात्र अपने गुरु के पुत्र को उसके विद्यालय पहुँचा रहा है। तीसरा छात्र गुरु पत्नी की सेवा में जुटा हैं और सिल पर मसाला पीस रहा है, चौथा छात्र घर की रसोई में सहायता कर रहा है। चक्की से गेहूँ पिसवा कर लाना, सब्ज़ी मंडी से सब्ज़ी लाना, धोबी के यहाँ मैले कपड़े भिजवाना, गुरु जी के लिए दुकान से बीड़ी-पान खऱीद कर लाना इन सभी कार्यों को छात्र ही संपन्न करते हैं। उसके बावजूद भी कुछ बुद्धिजीवी लोग यही कहते हैं कि छात्रों के हृदय से अपने गुरु अर्थात अध्यापक के प्रति सेवा-भावना का लोप हो रहा है। यह तो सरासर नाइन्साफी है छात्रों के साथ।
यदि कोई सनकी अध्यापक इनके धंधे-पानी में बाधा बनता है तो ये विषैले साँप बनकर उसे डसने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं। मुँह का ज़ायका बदलने के लिए ये चुगली का भी सहारा लेते हैं। यदि अर्ध-वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को बोर्ड की परीक्षा से वंचित करने का नियम दिया जाए। इससे ट्यूशन के कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा तथा धंधे की गिरती हुई प्रतिष्ठा को बल मिलेगा।
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