essay on this topic in Hindi please........
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नई दिल्ली में भारत के उच्चतम न्यायालय की बाईं ओर लालबहादुर शास्त्री मार्ग पर एक विशाल मैदान है, जिसे ‘प्रगति मैदान’ के नाम से जाना जाता है । वस्तुत: यह मैदान प्रदर्शनी स्थल है । राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यहाँ प्रदर्शनियाँ लगती रहती हैं । प्रदर्शनी राष्ट्र की प्रगति की सूचक होती है । अत: इस मैदान का नाम ‘प्रगति मैदान’ रखा गया है ।
13 फरवरी, 2000 को रविवार का दिन । पुस्तक मेले का अंतिम दिन । पिताजी ने प्रात: ही घोषणा कर दी कि आज ‘पुस्तक मेला’ देखने जायेंगे । अत: रविवार होते हुए भी भोजन अपेक्षाकृत जल्दी बना । खा-पीकर, विश्राम करने के उपरान्त ग्यारह बजे के लगभग हम चल पड़े प्रदर्शनी देखने ।
पिताजी ने बड़ी बहन, माताजी और मुझे साथ लिया । टैक्सी की ओर चल दिए प्रगति मैदान के लिए । लगभग आधा घंटे में हम वहाँ पहुँच गए । प्रवेश टिकट द्वारा था । टिकटघर की खिड़की से हमने चार टिकट खरीदे । टिकट खरीदने में पन्द्रह मिनट लग गए । कारण टिकट खरीदने वालों की ‘क्यू’ (पंक्ति) बहुत लम्बी थी ।
कमाल हो गया, भारत में पुस्तक प्रदर्शनी देखने का इतना शौक । अनेक स्थलों पर मेले लगते हैं । वहाँ कोई प्रवेश शुल्क भी नहीं, उल्टे खेल-तमाशे और खाने-पीने की चटपटी चीजें ही होती हैं । यहाँ इस प्रकार का आकर्षण भी नहीं था, फिर भी लोगों का पुस्तक मेले के प्रति आकर्षण कम न था ।
पुस्तक-प्रदर्शनी पाँच हॉलों में लगी थीं । तीनों हॉल एक दूसरे पर्याप्त दूरी पर थे । सबसे सुन्दर स्थान अंग्रेजी वालों का था । वे दो हॉल और तीसरे हॉल का ग्राउंड फ्लोर घेरे हुए थे । हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ दासी पुत्री होने के कारण जरा दूर 6 नम्बर हॉल में बिठा रखी थीं ।
हिन्दी को पृथक हॉल प्रदान नहीं किया गया था । अंग्रेजी की मानसिकता के व्यवस्थापकों में हिन्दी को गौरव प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता । इसलिए भारतीय भाषाओं के अन्दर उसे स्थान दिया गया । ‘हिन्दी हॉल’ कहने और नाम देने में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है ।
भारतीय भाषा के प्रकाशकों ने अपने प्रकाशनों को हैसियत के अनुसार स्टैंड अथवा स्टॉल लेकर प्रदर्शित किया हुआ था । पुस्तकों के रंगीन तथा आकर्षक आवरण तथा नाम देखकर हम लोग पुस्तक उठाते, उसे उलटते-पलटते और अच्छी लगती तो खरीद लेते । एक चीज बिना माँगे मिल रही थी: प्रकाशकों के सूची-पत्र ।
इस मंडप से हमने 5-6 निबन्धों की तथा 4-5 सामयिक विषयों की पुस्तकें खरीदीं । इस मंडप को देखने में समय लगा । पिताजी के मिलने वाली, माताजी की शिष्याएँ, बहिन के सहपाठी और मेरे मित्र मिले । मिलने पर चेहरे मुस्करा, उठते । किसी से हाथ खिलाकर, कभी हाथ जोड़कर, कभी चरण-स्पर्श कर अभिवादन करते । एक-दो मिनट गपशप करते ।
यह मंडप भारतीय संस्कृति और सभ्यता का नमूना था । वेश-भूषा, आचार-व्यवहार, बोलचाल के सभी रूप और रंग इस मंडप में देखने को मिलते थे । बंगाल, मद्रास, महाराष्ट्र, पंजाब तथा उत्तरी भारत की नारियों को धोती बाँधने और ओढ़ने में विविधता देखकर तथा सचमुच हम भारतीय हैं । यहाँ विविधता में भी एकरूपता के दर्शन हुए ।
एक बात बताना मैं भूल गया । जिस-जिस स्टैंड या स्टॉल पर बच्चों की पुस्तकें प्रदर्शित थीं, वहाँ भीड़ भी अधिक थी और बिक्री भी । सर्वाधिक भीड़ ‘डाइमंड पब्लिशर्स’ या ‘चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट’ के स्टॉल पर थी । बच्चों के लिए बहुरंगी पुस्तकें, किन्तु बहुत सस्ते मूल्यों में, ये दो ही प्रकाशक बेच रहे थे । वैसे भी, यह मेला बाल-साहित्य को समर्पित था । एक हॉल में बाल-साहित्य की भव्य प्रदर्शनी देखते ही बनती थी ।
दो घंटे की चहल-कदमी से हम लोग थक गए थे । इसलिए थोड़ी देर के लिए हॉल से बाहर खाने-पीने के परिसर में पहुँचे । गरम-गरम कॉफी पी । समोसे और गुलाब जामुन खाए । थोड़ा विश्राम किया । आगे बढ़े तो देखा विदशी मंडप । सँसार के विभिन्न भाषाओं-भाषियों का संगम स्थल ।
रूस, अमेरिका, ग्रेट-ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान के रंगीन स्टॉल । यहाँ भीड़-भाड़ बहुत कम थी, किन्तु बिक्री बहुत अधिक । लगता था ज्ञान के पिपासु और कॉलिज पुस्तकालय विदेशी ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों के क्रय करने में होड़ लगाए हुए हैं ।
सायं 7.30 बज चुके थे । चल-चलकर पैर जवाब दे चुके थे, परन्तु मन देख-देख कर नहीं भर रहा था उसकी तमन्ना थी, और देखा जाए । ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं ।’ मन को झुकना पड़ा । हम बाहर निकल
13 फरवरी, 2000 को रविवार का दिन । पुस्तक मेले का अंतिम दिन । पिताजी ने प्रात: ही घोषणा कर दी कि आज ‘पुस्तक मेला’ देखने जायेंगे । अत: रविवार होते हुए भी भोजन अपेक्षाकृत जल्दी बना । खा-पीकर, विश्राम करने के उपरान्त ग्यारह बजे के लगभग हम चल पड़े प्रदर्शनी देखने ।
पिताजी ने बड़ी बहन, माताजी और मुझे साथ लिया । टैक्सी की ओर चल दिए प्रगति मैदान के लिए । लगभग आधा घंटे में हम वहाँ पहुँच गए । प्रवेश टिकट द्वारा था । टिकटघर की खिड़की से हमने चार टिकट खरीदे । टिकट खरीदने में पन्द्रह मिनट लग गए । कारण टिकट खरीदने वालों की ‘क्यू’ (पंक्ति) बहुत लम्बी थी ।
कमाल हो गया, भारत में पुस्तक प्रदर्शनी देखने का इतना शौक । अनेक स्थलों पर मेले लगते हैं । वहाँ कोई प्रवेश शुल्क भी नहीं, उल्टे खेल-तमाशे और खाने-पीने की चटपटी चीजें ही होती हैं । यहाँ इस प्रकार का आकर्षण भी नहीं था, फिर भी लोगों का पुस्तक मेले के प्रति आकर्षण कम न था ।
पुस्तक-प्रदर्शनी पाँच हॉलों में लगी थीं । तीनों हॉल एक दूसरे पर्याप्त दूरी पर थे । सबसे सुन्दर स्थान अंग्रेजी वालों का था । वे दो हॉल और तीसरे हॉल का ग्राउंड फ्लोर घेरे हुए थे । हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ दासी पुत्री होने के कारण जरा दूर 6 नम्बर हॉल में बिठा रखी थीं ।
हिन्दी को पृथक हॉल प्रदान नहीं किया गया था । अंग्रेजी की मानसिकता के व्यवस्थापकों में हिन्दी को गौरव प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता । इसलिए भारतीय भाषाओं के अन्दर उसे स्थान दिया गया । ‘हिन्दी हॉल’ कहने और नाम देने में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है ।
भारतीय भाषा के प्रकाशकों ने अपने प्रकाशनों को हैसियत के अनुसार स्टैंड अथवा स्टॉल लेकर प्रदर्शित किया हुआ था । पुस्तकों के रंगीन तथा आकर्षक आवरण तथा नाम देखकर हम लोग पुस्तक उठाते, उसे उलटते-पलटते और अच्छी लगती तो खरीद लेते । एक चीज बिना माँगे मिल रही थी: प्रकाशकों के सूची-पत्र ।
इस मंडप से हमने 5-6 निबन्धों की तथा 4-5 सामयिक विषयों की पुस्तकें खरीदीं । इस मंडप को देखने में समय लगा । पिताजी के मिलने वाली, माताजी की शिष्याएँ, बहिन के सहपाठी और मेरे मित्र मिले । मिलने पर चेहरे मुस्करा, उठते । किसी से हाथ खिलाकर, कभी हाथ जोड़कर, कभी चरण-स्पर्श कर अभिवादन करते । एक-दो मिनट गपशप करते ।
यह मंडप भारतीय संस्कृति और सभ्यता का नमूना था । वेश-भूषा, आचार-व्यवहार, बोलचाल के सभी रूप और रंग इस मंडप में देखने को मिलते थे । बंगाल, मद्रास, महाराष्ट्र, पंजाब तथा उत्तरी भारत की नारियों को धोती बाँधने और ओढ़ने में विविधता देखकर तथा सचमुच हम भारतीय हैं । यहाँ विविधता में भी एकरूपता के दर्शन हुए ।
एक बात बताना मैं भूल गया । जिस-जिस स्टैंड या स्टॉल पर बच्चों की पुस्तकें प्रदर्शित थीं, वहाँ भीड़ भी अधिक थी और बिक्री भी । सर्वाधिक भीड़ ‘डाइमंड पब्लिशर्स’ या ‘चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट’ के स्टॉल पर थी । बच्चों के लिए बहुरंगी पुस्तकें, किन्तु बहुत सस्ते मूल्यों में, ये दो ही प्रकाशक बेच रहे थे । वैसे भी, यह मेला बाल-साहित्य को समर्पित था । एक हॉल में बाल-साहित्य की भव्य प्रदर्शनी देखते ही बनती थी ।
दो घंटे की चहल-कदमी से हम लोग थक गए थे । इसलिए थोड़ी देर के लिए हॉल से बाहर खाने-पीने के परिसर में पहुँचे । गरम-गरम कॉफी पी । समोसे और गुलाब जामुन खाए । थोड़ा विश्राम किया । आगे बढ़े तो देखा विदशी मंडप । सँसार के विभिन्न भाषाओं-भाषियों का संगम स्थल ।
रूस, अमेरिका, ग्रेट-ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान के रंगीन स्टॉल । यहाँ भीड़-भाड़ बहुत कम थी, किन्तु बिक्री बहुत अधिक । लगता था ज्ञान के पिपासु और कॉलिज पुस्तकालय विदेशी ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों के क्रय करने में होड़ लगाए हुए हैं ।
सायं 7.30 बज चुके थे । चल-चलकर पैर जवाब दे चुके थे, परन्तु मन देख-देख कर नहीं भर रहा था उसकी तमन्ना थी, और देखा जाए । ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं ।’ मन को झुकना पड़ा । हम बाहर निकल
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