Hindi, asked by Deepmala15April2005, 1 year ago

essay on "Uttarakhand mein badta palayan" in Hindi for seminar.

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Answered by Nikhil7492
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उत्तराखंड पुनर्निर्माण की खबरों के बीच कम मुद्दा बनी खबर यह है कि इस बीच चीन ने उत्तराखंड में भी तीन बार घुसपैठ की। याक और खच्चर पर सवार चीनी गश्ती दलों को गढ़वाल के चमोली और कुमाऊँ के धारचुला इलाके में देखा गया। ये दोनों ही आपदा प्रभावित क्षेत्र हैं। मुख्यमंत्री भी राज्य में चीनी घुसपैठ को लेकर चिंता जता चुके हैं। लेकिन इस चिंता ने पुनर्निर्माण के समक्ष चुनौती की जो खिड़की खोली है, उसे लेकर चेतना जरूरी है। आइए, चेतें! हिमालय को इसकी जगह पर बनाए रखने का पर्यावरणीय महत्व है, तो हिमालयवासियों को उनकी जड़ों पर बनाए रखने का महत्व सामाजिक और सामरिक है; खासकर जब आंकड़ा पिछले 12 साल में 10 लाख लोगों के पलायन का हो; वह भी सीमा करीब के 10 जिलों से। एक अनुमान के मुताबिक आपदा इस आंकड़ें में 50 हजार और जोड़ेगी। सामरिक दृष्टि से उत्तराखंड ऊपरी जिलों से हो रहे पलायन को रोकना बेहद जरूरी है; खासकर पिथौरागढ़, बागेश्वर, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चमोली जैसे आपदा प्रभावित जिले से। आखिरकार हिमालय और सेना के बाद की तीसरी सेना जो हैं हिमालयवासी। मगर यह हो कैसे? 

तात्कालिक पलायन को रोकने के लिए तात्कालिक राहत कार्य युद्ध स्तर पर किए जाने की जरूरत है। तात्कालिक राहत इतनी उत्कृष्ट और भरोसेमंद हो कि लोगों को उनकी जड़ों पर रोका जा सके। शासन-प्रशासन के रवैये को देखते हुए यह फिलहाल संभव नहीं दिखता। राहत सामग्री यदि आपदाग्रस्त धारचूला तक पहुंचने से पहले आपदा मुक्त किसी कस्बे के कस्बाई नेताओं द्वारा जबरन उतार ली जाए, तो उम्मीद नहीं जगती। उम्मीद तब भी नहीं जगती, गर जिनके पास आपदा से पहले हवेली थी, उसे आपदा के बाद राहत हक की तरह नहीं, भीख की तरह दी जाए। आपदा राहत कार्यों के पूर्व अनुभव न्याय पूर्ण नहीं है। फिलवक्त गर्भ में पल रहे साढ़े आठ हजार शिशु आपदा के बाद भी आपदा में ही हैं। इस दृष्टि से जरूरी है कि अगले छह माह के लिए राहत कार्य का क्रियान्वयन अनुभवी, सक्षम, संवेदनशील व जवाबदेह संस्थानों/एजेंसियों के मार्गदर्शन, भागीदारी व निगरानी में हो। 

एक अनुभव यह है कि राहत राशि का काफी बड़ा हिस्सा उनके हिस्से में चला जाता है, जो न सिर्फ समर्थ हैं, बल्कि आपदा दुष्प्रभाव बढ़ाने के दोषी भी। क्या यह राय वाजिब नहीं कि नियम विपरीत किए गए ऐसे सभी निर्माणों को चिन्हित कर अवैध घोषित किया जाए? न सिर्फ ऐसे निर्माणों को हुए नुकसान को आपदा राहत के लाभ से वंचित किया जाना जरूरी है, बल्कि आपदा दुष्प्रभावों को बढ़ाने की दोषी जिस परियोजना या व्यावसायिक निर्माण के कारण जितने क्षेत्र की जितनी संपदा व जीवन क्षति हुई हो, उसकी पुनर्निर्माण तथा मुआवजा राशि उन्ही परियोजनाओं व विकासकर्ता कंपनियों से वसूली जाए। नियमों व सुरक्षा दृष्टि की अवहेलना कर मंजूरी देने वाले अधिकारियों को भी दंडित किया जाए। 

तत्काल राहत में पारदर्शिता और जनजिम्मेदारी सुनिश्चित करने की दृष्टि से यह भी जरूरी है कि ग्रामसभा/नागरिक समितियों की अधिकारिक बैठक बुलाकर आपदा के परिवारवार नुकसान आकलन को सार्वजनिक किया जाए। स्थानीय समुदाय द्वारा आवेदित बिजली उत्पादन की अत्यंत छोटी परियोजनाओं को तत्काल प्रभाव से मंज़ूर किया जाए। जीवन जरूरत के संसाधनों की बहाली जरूरी है; लेकिन कम जरूरी नही हैं आश्वस्त करने वाली पक्की घोषणाएं। आपदा के बाद जिन लाभार्थी परिवारों में कोई कमाऊ सदस्य जीवित नहीं बचा है, उनमें बालिग सदस्य को शैक्षिक योग्यतानुसार प्रशिक्षण देकर उचित नौकरी की घोषणा तुरंत हो। बालिग सदस्य न होने की दशा में शेष सदस्यों के बालिग होने तक की शिक्षा, खानपान, आवास की समस्या समाधान के लिए नवोदय सरीखे रिहाइशी विद्यालयों/विश्वविद्यालयों में प्रवेश देकर खर्च की ज़िम्मेदारी सरकार वहन करे।

दीर्घकालिक कदम तय करने से पहले गौर कीजिए कि 12 साल पहले उत्तराखंड राज्य की नींव जल-जंगल-ज़मीन के हुकूक की मांग पर रखी गई। लेकिन सोचा उलट हो गया। आंदोलनकारी विधायक बन गए। प्राथमिकता लोकनीति की बजाय राजनीति हो गईं। नतीजा? उत्तराखंडवासी ये हुकूक तो आज भी नहीं पा सके। हां! इन 12 सालों में इतना ज़रूर हुआ कि देश की तरक्की ख़बरें सुदूर गाँवों में जा पहुंची। तकनीकी व व्यावसायिक शिक्षा के बाद अच्छी तनख्वाहों की जानकारी ने सपने बड़े किए हैं। परिणामस्वरूप सुदूर गाँवों में बसे लोग भी अब अपने बच्चों को शुरू से ही ऐसी शिक्षा दिलाना चाहते हैं, ताकि संतानें प्रतियोगिता की दौड़ में पिछड़ न जाएं। इसी सपने को लेकर उत्तराखंड राज्य कर्मचारियों के संघ ने हड़ताल कर मांग की है कि उनका तबादला सूदूर गाँवों से हटाकर शहरी व कस्बाई इलाकों में किया जाए। खेती का रकबा भी इस बीच घटकर 7 प्रतिशत पहुंच गया है। जलविद्युत परियोजनाओं के दुष्प्रभाव क्षेत्र की खेती कई कारणों से खत्म हुई है। इसके कारण भी आजीविका नए विकल्प तलाशने को मजबूर हुई है। 

समस्या यह भी हुई कि राज्य बनने से पहले भिन्न विभाग अलग-अलग जिलों में थे। राज्य बनने के बाद सब एक जगह केन्द्रित हो गये हैं। लोग इस कारण भी देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार, नैनीताल, हल्द्वानी और रूद्रपुर जैसे इलाकों में आ बसे। यदि उत्तराखंड का नया राज्य बेइलाज मरने की बेबसी के साथ नहीं जीना चाहता। इसमें गलत क्या है? शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक हैं। इनकी पूर्ति होनी ही चाहिए। कुल मिलाकर पलायन का बड़ा कारण सुदूर क्षेत्रों में समर्थ-संवेदनशील डॉक्टर, मास्टर व रोज़गार का न होना है। स्कूल व प्राथमिकता चिकित्सा केन्द्रों की इमारतें तो हैं, लेकिन उनमें अधिकारी-कर्मचारी होकर भी नदारद हैं। रोज़गार की योजनाएं हैं, लेकिन क्रियान्वयन नहीं है।

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