essay on Vikram batra in hindi
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परिचय - कैप्टन विक्रम बत्रा भारतीय सेना के अधिकारी थे जिन्होंने कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का परिचय
देते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा गया। उनका जन्म 9 सितंबर 1974 को पालमपुर गांव में जिला हिमाचल प्रदेश में हुआ था। उनका देहांत 7 July 1999 ko कारगिल युद्ध में हुआ था जगह जम्मू कश्मीर उस वक्त वह सिर्फ 24 साल के थे। 1997 से 1999 तक उन्होंने हमारी सेवा की ।
प्रारंभिक जीवन - पालमपुर निवासी जीएल बत्रा एवं माता कमलकांता बत्रा के घर दो बेटियों के बाद दो जुड़वा बच्चों ने जन्म लिया मां कमल कांता को रामायण में बेहद रुचि थी इसलिए उन दोनों का नाम लव तथा कुछ रखा गया यानी विक्रम बत्रा और कुश यानी विशाल बत्रा। दोनों बच्चों को पहले डीएवी स्कूल बाद में पालमपुर की स्थानीय स्कूल में दाखिला करवाया गया स्कूल सेना के कैंप के पास ही था इसकी वजह से मेजर विक्रम में अनुशासन प्रियता हुए तथा अपने पिता से देश भक्ति की कहानी सुनकर उनके अंदर भी देश प्रेम जागा।
सैन्य जीवन - विज्ञान विषय से स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया 1996 में उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी प्रवेश लिया। 1997 में प्रशिक्षण समाप्त कर उन्होंने 6 दिसंबर 1997 को सोपोर नामक जगह में सेना की 13 जम्मू कश्मीर राइफल में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिले। इसी दौरान उन्हें 1999 को कारगिल युद्ध में की एक टुकड़ी के साथ भेजा गया हम्प एवं राकी नाब स्थानों को की जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्वपूर्ण चोटी 5140 छोटी को पाकिस्तानी सेनाओं से मुक्त कराने की जिम्मेवारी कैप्टन बत्रा को मिली। दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद कैप्टन ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह 3:00 बज कर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में लिया कैप्टन बत्रा ने जब रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष यह दिल मांगे मोर कहा सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया । विक्रम के कोर्ट का नाम शेरशाह के साथ उन्हें शेर की संज्ञा दी गई । इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को फतह करने की तैयारी की । इसके लिए भी कैप्टन बत्रा और उनकी टुकड़ी को जिम्मेदारी दी गई। उन्होंने जान की परवाह ना करते हुए अपनी टुकड़ी के साथ जिनमें अनुज नय्यर भी थे उस छोटी की तरह कूच की।
सम्मान - 15 अगस्त 1999 को उन्हें मरणोपरांत वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा गया जो 7 जुलाई 1999 से प्रभावित हुआ ।