essay : परहित सरिस धर्म नहीं भाई
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परहित सरिस धरम नहिं भाई पर निबंध! Here is an essay on an ‘Atheism is not Fond of Religion’ in Hindi language.
”परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।”
परोपकार से बढ़कर कोई उत्तम कर्म नहीं और दूसरों को कष्ट देने से बढ़कर कोई नीच कर्म नहीं । परोपकार की भावना ही वास्तव में मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाती है । कभी किसी भूखे व्यक्ति को खाना खिलाते समय चेहरे पर व्याप्त सन्तुष्टि के भाव से जिस असीम आनन्द की प्राप्ति होती है, वह अवर्णनीय है ।
किसी वास्तविक अभावग्रस्त व्यक्ति की नि:स्वार्थ भाव से अभाव की पूर्ति करने के बाद जो सन्तुष्टि प्राप्त होती है, बह अकथनीय है । परोपकार से मानव के व्यक्तित्व का विकास होता है ।
व्यक्ति ‘स्व’ की सीमित संकीर्ण भावनाओं की सीमा से निकलकर ‘पर’ के उदात्त धरातल पर खड़ा होता है, इससे उसकी आत्मा का विस्तार होता है और वह जन-जन के कल्याण की ओर अग्रसर होता है ।
प्रकृति सृष्टि की नियामक है, जिसने अनेक प्रकार की प्रजातियों की रचना की है और उन सभी प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ प्रजाति मनुष्य है, क्योंकि विवेकशील मनुष्य जाति सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह स्वयं से परे अन्य लोगों की आवश्यकताओं की भी उतनी ही चिन्ता करती है, जितनी स्वयं की ।
इसी का परिणाम मनुष्य की सतत विचारशील, मननशील एवं अग्रगामी दृष्टिकोण सम्बन्धी मानसिकता के रूप में देखा जा सकता है । प्रकृति के अधिकांश जीव सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही स्वयं को सीमित रखते हैं, अपनी एवं अपने बच्चों की उदरपूर्ति के अतिरिक्त उन्हें किसी अन्य की चिन्ता नहीं रहती, लेकिन मनुष्य स्वयं के साथ-साथ न सिर्फ अपने परिवार, बल्कि पूरे समाज को साथ लेकर चलता है एवं उनके हितों के प्रति चिन्तित रहता है ।
Answer:
Parhit Saris Dharam Nahi Bhai Hindi Anuched की यह पंक्ति गोस्वामी तुलसी दास कृत श्री रामचरितमानस से ली गयी है. इसमें भगवान श्री राम भरत की विनती पर साधु और असाधु का भेद बताने के बाद कहते हैं- ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’ और पर पीड़ा सम नहिं अधमाई.’ अर्थात दूसरों की भलाई के समान अन्य कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के जैसा अन्य कोई निम्न पाप नहीं है.स्वार्थ-निरपेक्ष रहकर दूसरों के हितार्थ कार्य करना परहित है. पर पीड़ाहरण परहित है. पारस्परिक विरोध की भावना घटना और प्रेम भाव बढ़ाना परहित है. दिन, दुखी, दुर्बल की सहायता परहित है. आवश्यकता पड़ने पर निस्वार्थ भाव से दूसरों को सहयोग देना परहित है. मन, वचन और कर्म से समाज का मंगल साधन परहित है.
‘परहित सरिस धर्म नहीं’ का अर्थ हुआ – परहित ही इस लोक में सर्व-सुख तथा सर्व उन्नति का कारण है और मृत्यु होने पर आवागमन से छुटकारा प्राप्त करने का साधन है
Explanation:
परहित से व्यक्ति में सक्रिय शारीरिक शक्ति बनी रहती है. शरीर बलवान होकर अपराजेयता को प्राप्त होता है. सहनशील होने से वह अशांत नहीं होता. धैर्य उसे विचलित नहीं होने देता. बल उसमें कुछ कर सकने का सामर्थ्य उत्पन्न करता है. अपना वचन पूरा करने से उसमें आत्मविश्वास जागृत होता है. परिणामस्वरूप परहित से श्री की समृद्धि होती है. सुखपूर्वक लौकिक जीवन में उन्नति करता हुआ व्यक्ति अंत में इंद्रियों को वश में रखते हुए प्राण त्याग कर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होता है.
आप दिव्यमान सूर्य का उदाहरण ले सकते हैं, जो परहित में हमेशा अपने प्रकाश से जग को आलोकित करता रहता है. चन्द्रमा परहित निरत होकर जगत को शीतलता प्रदान कर अपना धर्म निबाहता है. नदियाँ परहित में बहती हैं. गायें परहित के लिये अमृतमय दूध देती हैं. पेड़ अपने सिर पर तीव्र धूप को सहन करता है और अपनी छाया से अपने आश्रितों के संताप दूर करता है. वायु निरंतर बहकर जीवन देती है. समुद्र अपने रत्न परहित लुटाता है. प्रकृति का कण-कण परहित समर्पित है, वह स्वार्थ से ऊपर है.
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‘असुर विनाश’ से श्री राम का अर्थ था. ‘परित्राणाय साधुनाम’ तथा ‘विनाशाय च दुष्कृताम’ कहकर योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपना धर्म पहचाना. सिख गुरूओं ने हिन्दू धर्म की रक्षा को धर्म माना और उसके लिये निरंतर प्रयासरत रहे. शिवाजी ने हिन्दुओं के लाज की रक्षा करना ही अपना धर्म माना. जनसेवा को गाँधी जी ने अपने अभ्युदय का सम्बल माना. गरीब और पीड़ित की सेवा कर मदर टेरेसा संत बन गयी. तुलसी ने हिन्दू जीवन की व्याख्या में सर्वोच्च कल्याण के दर्शन किए. स्वामी विवेकानन्द ने दीन -दुखियों, पीड़ितों की सेवा में जीवन की कृतार्थता मानी. ये महापुरूष परहित को धर्म समझकर जीवन-भर कार्य करते रहे. इसीलिए ऋद्धि – सिद्धि इनके चरण चूमती रही. यश और कीर्ति इनके पीछे दौडती रही. परलोक में मोक्ष का द्वार उनके स्वागत में खुला रहा.
परहित के समान दूसरा धर्म अर्थात कर्तव्य भी नहीं है. प्यासे को पानी पिलाना, भूखे को भोजन करना, अंधे को मार्ग दर्शाना, नंगे को वस्त्र देना, दरिद्र के दुःख दूर करना, पीड़ित की पीड़ा हरना, पतित को पावन करना, अशांत को शांति देना मानव के सहज धर्म हैं.
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‘परोपकार: पुण्याय ’ कहकर व्यास जी ने परहित को ही धर्म माना. ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ‘ की कामना करके ऋषि-मुनियों ने परहित को धर्म माना.’ परोपकाराय सता विभूतयं ‘ कहकर भतृहरि ने परहित में धर्म के चरम लक्ष्य के दर्शन किए. मैथिलीशरण गुप्त ने ‘मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे’ कहकर परहित में धर्म के कर्तव्य और कृतार्थता को समझा.
परोपकार को धर्म समझने का अर्थ कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलकर अपने तन-मन को कष्टों की अग्नि में झुलसना है. फूलों की सेज त्याग कर कांटों की चुभन से प्यार करना है. दुःख में सुख के, पीड़ा में शांति के, कष्ट में आनन्द के, त्याग में सच्चिदानंद के तथा बलिदान में मोक्ष के दर्शन करना है. प्रभु ईसामसीह का सूली पर चढना, सुकरात का जहर पीना, दधीचि ऋषि का अस्थि-दान, राजा शिवि का अपने शरीर का मांस दान करना, दयानन्द का विषपान और शहीदों का बलिदान परहित धर्म-पालन में सच्चिदानंद की प्राप्ति ही तो है.
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परहित विविध रूप वाला है. व्यक्तिगत रूप में मनुष्य यज्ञ, अध्ययन दान, तप, सत्य, क्षमा, मन और इंद्रियों का संयम तथा लोभ-त्याग द्वारा परहित का धर्म निबाह सकता है. ऋषि-मुनियों का जीवन इसका उदाहरन है. ’धर्मो रक्षति रक्षित:’ को सिधांत वाक्य मान कर धर्म हितार्थ अपना जीवन बिता सकता है. साधु और संन्यासी इसके उदाहरन हैं. समाज में फैली कुरीतियों, कुप्रथाओं, अंध-विश्वासों को दूर करके मनुष्यों को सचेत करने में धर्म की कृतार्थता मान सकता है. महर्षि दयानन्द और डा. हेडगेवार इसके उदाहरन हैं. राष्ट्र-हित को ही धर्म समझने वाले अपने जीवन को मोक्ष की प्राप्ति का अधिकारी मान सकते हैं.
परहित में धर्म के दर्शन करने वाले लोग सैकड़ों यज्ञों से प्राप्त पुन्य से भी अधिक पुन्य लाभ करते हैं. वे इहलोक में सुख, शांति, ऐश्वर्य तथा यश अर्जित करते हैं. तुलसी के वचन इसके प्रमाण हैं – ‘परहित बस जिन्ह के मन मही, तिन्ह कहू जग दुर्लभ कछु नाहीं/ ‘ऐसे लोग अनचाहे में यश के भागी होते हैं. परहित लगी तजहिं जो देही / सन्तत संत प्रशंसहि तेही /’ राम, कृष्ण, दयानन्द, विवेकानन्द आदि सैकड़ों महापुरूष इसके उदाहरण हैं. वे मृत्यु की वेदना को हँसते हुए सहकर मोक्ष के भागी बनते