English, asked by asdfgh123456, 1 year ago

Essay Writing on
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साहित्य समाज का दर्पण है (in hindi 300-400 words)

please dont copy from internet
you can copy from any books

tomorrow i have an essay writing competition

so please.....

Answers

Answered by btsarmy3694
9
HEY MATE....

साहित्य समाज का दर्पण है

अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि और आलोचक मैभू आर्नल्ड ने साहित्य के प्रति उपयोगितावादी ‘दृष्टिकोण अपना कर कहा था Literature is the Mirror of Society. इसी कथन का हिन्दी रूपान्तर है-साहित्य समाज का दर्पण है । इस कथन की व्याख्या यूँ कह कर की जाती या की ‘ जो सकती है कि साहित्य मात्र मनोरंजन का साधन न होकर अपने युग के मानवीय प्रश्नों, समस्याओं को इस प्रकार से प्रस्तुत किया करता है, जिस से. जीवन-समाज का मार्ग-दर्शन तो हुआ ही करता है, उस का भीतरी और बाहरी स्वरूप भी उभर कर सबके सामने आ जाया करता है ।

दूसरे शब्दों में जब जैसा जीवन और समाज हुआ करता है, तब उसी तरह का साहित्य रचा जाता है । साहित्य के उद्देश्य को लेकर आरम्भ से ही दो प्रकार की धारणाएँ या मान्यताएँ प्रचलित रही हैं-एक कलावादी, दूसरी उपयोगितावादी । कलावादी साहित्य या कला का उद्देश्य प्रमुखत: साहित्यकार या कलाकार द्वारा अपने आप को अभिव्यक्त या अभिव्यंजित करना ही स्वीकार करते हैं या फिर अधिक-से-अधिक रसवादियों के समान रस अर्थात् मनोरंजन की सृष्टि करना ही मानते और कहते हैं ।

इसके विपरीत दूसरा वर्ग कला-साहित्य का उद्देश्य जीवन का उत्कर्ष, उन्नयन और मार्ग-दर्शन करना औ र इस प्रकार उपयोगितावादी जीवन-दृष्टि को महत्त्व देने वाला है । यही वर्ग साहित्य को समाज का दर्पण अर्थात् जीवन-समाज को प्रतिबिम्बित करने का सर्वोत्कृष्ट साधन मानता है । यह प्रतिबिम्बित इस प्रकार से होता है कि जीवन में जहाँ, जैसा और जो कुछ भी है; वह सामने आकर हमें वास्तविकता का अहसास तो करा देता है; पर उसी को सब कछ या सत्य मान लेने, उसी को बने रूहने देने, उसी को अपना लेने की प्रेरणा और प्रोत्साहन नहीं दिया करता ।

इसके विपरीत प्रेरणा यह देता है कि मानव-समाज उसमें से सार रूप में अच्छे को अपनाने और बुरे या भदेस को दूर करने का प्रयास करके उत्कर्ष की राह पर आगे बड़े । साहित्य समाज का दर्पण है, सो जैसे व्यक्ति दर्पण में अपना चेहरा देख कर जान लिया करता है कि वह स्वस्थ हो रहा है या अस्वस्थ, दुबला हो रहा है या सबल, सुन्दर है या असुन्दर, चेहरे पर कोई दारा वगैरह तो नहीं पड़ गया, मूल तो नहीं जम गई या आँखों की स्थिति कैसी थी, है और हो रही है आदि ।

ऐसा सब जानने के बाद व्यक्तिइइइ अप चेहरे का ही नहीं, पूरे शरीर की स्थिति कैसी थी, है और स्वास्थ्य का आवश्यकतानुसार परिमार्जन, परीक्षण और परिवर्द्धन कर सकता है, ठीक उसी प्रकार का कार्य यह साहित्य-रूपी दर्पण देख-पढ़कर भी किया जा सकता हैं अर्थात् किसी युग-समाज का जीवन प्रगति और विकास कर रहा है या फिर अवनति और हास की तरफ जा रहा है, जीवन समाय की मनोवृत्तियाँ स्वस्थ हो रही हैं या अस्वस्थ उनका प्रभाव जीवन समाज को सबल बना रहा है या दुर्बल, यह सब इस साहित्य रूपी दर्पण के अध्ययन से ज्ञात हो जाता है ।

इसे जानने के बाद चाह और प्रयास कर मानव अवनति और हास के कारणों को दूर कर जीवन-समाज का व्यक्तित्व सबल, स्वस्थ एवं प्रगतिशील बना सकता है । सुख-समृद्धि एवं शान्ति का आयोजन सम्भव हो सकता हैं । साहित्य को समाज का दर्पण मानने वाले साहित्य- लेखन, पठन और मनन-चिन्तन -का चरम उद्देश्य इसी सब को स्वीकार करते हैं ।  यह तर्क है कि साहित्य-कला आदि से हमारा मनोरंजन भी होता हैं और होना भी चाहिए । किन्तु जीवन में मनोरंजन और आनन्द ही सब-कुछ नहीं है और भी बहुत कुछ है जो करने और ध्यान देने योग्य है ।

जीवन-समाज हमेशा कई प्रकार की समस्याओं से., प्रश्नों और अनहोनी स्थितियों से जूझता रहा करता है । साहित्य उन सब की ओर भी ध्यान दिया करता है । ऐसा करके अर्थात् ध्यान देकर, उस को अपने वर्णन-विश्लेषण का आधार बनाकर और यदि उसमें कछ मानवता-विरोधी है, उसके वर्तमान और भविष्य पर अपघात करने वाला है, उस सब को दूर करने के परोक्ष रूप से उपाय सुझा या मार्ग-दर्शन करके. ही साहित्य समाज का दर्पण बन सकता या फिर बन पाने का अधिकारी हुआ करता है ।

साहित्य को सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ कला इसी कारण कहा-माना जाता है कि उसमें मानव- जीवन-समाज का प्रतिनिधित्व कर सक ने, उसका मार्ग दर्शन कर .सकने की अपूर्व और अद्‌भुत शक्ति हुआ करती है । वह जीवन समाज के उत्थान-पतन दोनों का कारण बन सकता है । सो साहित्यकारों का यह दायित्व हो जाता है कि वह हमेशा जीवन-समाज की उज्ज्वलता और उत्कर्ष का कारण बनता रहे ।



HOPE THIS HELPS YOU
BTW I copied it from my essay book I don't know if it's available on internet or not.

THANK YOU

asdfgh123456: very nice
btsarmy3694: thanks
Answered by as5187958
4

साहित्य’ शब्द की व्युत्पत्ति सहित शब्द से हुई है। ‘साहित’ शब्द के दो अर्थ हैं- ‘स’ अर्थात् साथ साथ और हित अर्थात् कल्याण। इस दृष्टिकोण से साहित्य शब्द से अभिप्राय यह हुआ कि साहित्य वह ऐसी लिखित साम्रगी है, जिसके शब्द और अर्थ में लोकरहित भी भावना सन्निहित रहती है। अर्थ के लिए विस्तारपूर्वक लिखित सामग्री के साहित्य शब्द का प्रयोग प्रचलित है, जैसे- इतिहास-साहित्य, राजनीति साहित्य, विज्ञान साहित्य, पत्र साहित्य आदि। इस प्रकार साहित्य से साहित्यकार की भावनाएँ समस्त जगत के साथ रागात्मक का सम्बन्ध स्थापित करती हुई परस्पर सहयोग, मेलमिलाप और सौन्दर्यमयी चेतना जगाती हुई आनन्द प्रदायक होती है। इससे रोचकता और ललकता उत्पन्न होती है।

साहित्य और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। समाज की गतिविधियों से साहित्य अवश्य प्रभावित होता है। साहित्यकार समाज का चेतन और जागरूक प्राणी होता है। वह समाज के प्रभाव से अनभिज्ञ और अछूता न रहकर उसका भोक्ता और अभिन्न अंग होता है। इसलिए वह समाज का कुशल चित्रकार होता है। उसके साहित्य में समाज का विम्ब प्रतिबिम्ब रूप दिखाई पड़ता है। समाज का सम्पूर्ण अंग यथार्थ और वास्तविक रूप में प्रस्तुत होकर मर्मस्पर्शी हो उठता है। यही नहीं समाज का अनागत रूप भी काल्पनिक रूप में ही हमें संकेत करता हुआ आगाह करता है। इस दृष्टिकोण से साहित्य और समाज का परस्पर सम्बन्ध एक दूसरे पर निर्भर करता हुआ स्पष्ट होता है।

‘साहित्य समाज का दर्पण’ ऐसा कहने का अर्थ यही है कि साहित्य समाज का न केवल कुशल चित्र है, अपितु समाज के प्रति उसका दायित्व भी है। वह सामाजिक दायित्वों का बहन करता हुआ उनको अपेक्षित रूप में निबाहने में अपनी अधिक से अधिक और आवश्यक से आवश्यक भूमिका अदा करता है। समाज में फैली हुई अनैतिकता, अराजकता, निरंकुशता जैसे अवांछनीय और असामाजिक तत्वों के दुष्प्रभाव को बड़े ही मर्मस्पर्शी रूप में सामने लाता है। इससे ऐसे तत्वों के प्रति घृणा, कटुता, दूरी और अलगाव की दृष्टि डालते हुए इन्हंअ हतोत्साहित किया जा सके।

साहित्यकार ऐसा कदम उठाते हुए ही जीवन के शाश्वत मूल्यों और आश्वयकताओं को अपेक्षित रूप में समाज को प्रदान करने लगता है। हिन्दी साहित्य का आदिकाल से रचित प्रायः सभी रचनाओं द्वारा तत्कालीन समाज जाति की परिस्थिति, विचार और कार्य व्यापार की पूरी जानकारी प्राप्त होती है। पराभव के द्वार पर पहुँचा हुआ हिन्दू समाज किस तरह मुस्लिम आक्रमणों से शिकस्त होकर अपनी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने में अपने आपको असमर्थ पा रहा था, जिससे हमें गुलामी की बेड़ी में बँध जाना पड़ा था। इसी तरह से रीतिकालीन विलासी जीवन से हम अपनी विकृतावस्था से किस तरह अज्ञानान्धकार में भटक रहे थे। आदिकाल का चित्र हमारी आँखों के सामने उस काल के साहित्यावलोकन से आने लगता है।

समाज और साहित्यक विषय साहित्य और समाज के ही समान तो लगता है, लेकिन दोनों में परस्पर भिन्नता है। साहित्य और समाज और समाज और साहित्य को ध्यान से देखने पर एक गम्भीर तथ्य यह निकलता है कि साहित्य जहाँ समाज का दर्पण हैं, वहीं यह भी है कि समाज साहित्य का दर्पण है। साहित्य के द्वारा समाज का निर्माण होता है, अर्थात् साहित्य में जो कुछ है वही समाज में भी है और शेष को होना है। हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल इसकी पुष्टि करता है। तत्कालीन समाज की हीन और पराभव की परिस्थिति को सबल और आशामय संचार का ज्वार उठाती हुई भक्ति काव्यमयी रचनाओं ने अपना एक अभूतपूर्व इतिहास स्थापित किया। इसीलिए यह कहना अक्षरश:  सत्य है कि यदि साहित्य वास्तव में केवल समाज का दर्पण होता, तो कवि या साहित्यकार समाज की विसंगतियों या विडम्बनाओं पर कटु प्रहान नहीं करता। फिर उसे यथेष्ट और अपेक्षित दिशाबोध देने के लिए प्रयन्तशील भी नहीं होता। इसलिए जब कोई कवि या साहित्यकार समाज की अवांछनीयता या त्रुटियों को देखता है, उसे अनावश्यक समझता है और उसका शिरोच्छेदन कर आमूलचूल परिवर्तन के लिए दिशा निर्देश को एकमात्र विकल्प मानता है, तब वह इसके लिए सत्साहित्य का सृजन करना अपना सर्वप्रथम कर्त्तव्य समझता है और ऐसा करके वह विधाता का पद प्राप्त करता है, क्योंकि जहाँ विधाता समाज और सृष्टि का नियंता होता है, वहीं कवि और साहित्यकार भी अपेक्षित और आवश्यक समाज की रचना का सुझाव अपनी रचनाओं के दिया करता है।

समाज के प्रति साहित्यकार का दायित्व आशा का संचार करना, उत्साह और कर्त्तव्यबोध का दिशा देना आदि है। आदि कवि से लेकर आज के जागरूक और चेतनाशील साहित्यकारों की यही गौरवशाली परम्परा रही है। समाज की रूपरेखा को कल्याण और सुखद पथ पर प्रस्तुत करने से सत् साहित्य का रचनाकार कभी पीठ नहीं दिखाता है। वह सामाजिक विषमता रूपी समर में विजयी होने के लिए कलमरूपी तलवार को धारदार बनाए रखने में कभी गाफिल नहीं होता है।


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