History, asked by ella89, 7 months ago

Explain an Argument If Louis XIV truly ruled by divine right, what risk did
his subjects run if they questioned his authority?


answer in English not in Hindi please

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please answer asap

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Answered by Tannupandit008
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Answer:

राजा के दैवी सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ईश्वर के द्वारा की गई है। राजा को ईश्वर द्वारा राज्य को संचालित करने के लिए भेजा गया है। प्रजा का कर्तव्य है कि राजा का विरोध न करे क्योंकि वह ईश्वर का प्रतिनिधि है।

राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त प्राचीनतम सिद्धान्त है, जिसके अनुसार यह माना जाता है कि राज्य की स्थापना आरम्भ में ईश्वर द्वारा हुई। यहूदी धर्म-ग्रन्थों में उल्लेख है कि ईश्वर ने स्वयं आकर राज्य स्थापित किया; अन्य धर्मग्रन्थों के अनुसार ईश्वर ने किसी दैवी पुरूष को प्रेषित कर राज्य की रचना की। बाइबिल में उल्लेख है कि प्रत्येक आत्मा (मनुष्य) सर्वोच्च शक्तियों के अधीन हैं, क्योंकि सभी शक्तियों का स्रोत ईश्वर है।

प्राचीन भारत में अधिकतर संस्थाओं की उत्पत्ति दैवी मानी जाती थी और राज्य की उत्पत्ति के विषय में भी ऐसी ही धारणा थी। प्राचीन भारत में राजा को देवांश माना जाता था, अर्थात् राजा की उत्पत्ति विभिन्न देवों के अंश से हुई है। इस सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद और यजुर्वेद आदि वैदिक साहित्य, ब्राह्मण ग्रन्थों, स्मृति साहित्य, महाभारत और प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। मत्स्य पुराण में उल्लेख है कि ब्रह्मा ने राजा की सृष्टि की जिससे कि वह सभी प्राणियों की रक्षा कर सके। मनु ने यहाँ तक कहा कि बालक राजा का भी इस विचार से अपमान नहीं करना चाहिए कि वह साधारण मनुष्य होता हे। यह देवता है यद्यपि रूप में वह मनुष्य ही है। वेदों के अनुसार भी राजा को स्वयं इन्द्र समझना चाहिए और उसका इन्द्र के ही समान आदर करना चाहिए। महाभारत के शान्तिपर्व में यह वर्णन है कि प्राचीन काल में जब अराजकता फैली हुई थी, मनुष्यों ने आपस में एक समझौता किया और वे ब्र२ा के पास गये और प्रार्थना की कि वह किसी को राजा बना दें। ब्रह्मा ने मनु को प्रथम राजा बनाया।

वैदिक परम्परा के अनुसार राजा में इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरूण, चन्द्र और कुबेर- विभिन्न देवों के अंश विद्यमान रहते हैं। परन्तु महाभारत के अनुसार कोई भी राजा केवल अभिषेक समारोह के उपरान्त ही राजा बनता है। इस विषय में दीक्षितर ने लिखा है- जबकि स्टूअर्ट राजाओं का दैवी अधिकार में विश्वास था, राजा की शि७ के विषय में हिन्दू संकल्पना यह थी कि प्रजा की रक्षा करना ईश्वर द्वारा विहित कर्तव्य है। प्रथम नाथ बनर्जी का विचार है कि केवल धार्मिक राजा ही दैवी समझा जाता था और राजा देवता नहीं वरन् 'नरदेवता' माना जाता था। परन्तु डॉ घोषाल ने शान्ति पर्व के अध्याय ५८ के अन्तिम श्लोक को उद्धृत करते हुए यह तर्क दिया है कि राजा केवल देवता नहीं वरन् देवता के तुल्य होता है।

प्राचीन भारत में प्रतिपादित दैवी सिद्धान्त सम्बन्धी विचारों की पाश्चात्य विचारों से तुलना करते हुए डॉ घोषाल ने कहा है-

पश्चिम में प्रतिपादित दैवी सिद्धान्त मुख्यतः ये हैं-

(१) राजतन्त्र ईश्वरकृत संस्था है।

(२) राजाओं को शासन का आनुवंशिक अधिकार है;

(३) राजा केवल ईश्वर के ही प्रति उत्तरदायी है;

(४) राजाओं का विरोध नहीं करना चाहिए; और

(५) राजतन्त्र ही शासन का अनन्य उचित रूप है।

परन्तु प्राचीन भारत में दैवी सिद्धान्त के सम्बन्ध में भिन्न धारणाएँ थीं। प्राचीन भारतीय विचारक यह नहीं मानते कि राजा केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है इसके विपरित स्मृतियों की धारणा तो यह है कि राजा धर्म और कानूनों के अधीन होता है। मनु और भीष्म ने बुरे राजा के विरूद्ध विरोध को न्यायोचित ठहराया है। अन्त में प्राचीन भारतीय सिद्धान्त में ऐसा कोई समानान्तर सिद्धान्त नहीं है कि जन्म प्राप्त अधिकार छीना नहीं जा सकता। ग्रन्थों में अनेक राजाओं के उदाहरण है जिन्हें उनकी प्रजा ने सिंहासन से अलग किया।

आधुनिक राजशास्त्री दैवी सिद्धान्त को बुद्धिसंगत नहीं मानते और इसे सर्वथा त्याग दिया गया है। वास्तव में आज के युग में तो राजतन्त्र का स्थान ही प्रजातन्त्र अथवा अन्य प्रकार के सरकारों ने ले लिया है।

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