Explain surdas ka vatsalya varnan(in hindi)
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संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम
भक्ति के आचार्यों ने वत्सल अथवा वात्सल्य भक्ति पर बल देकर और उसका भक्ति में समावेश करके उसके गौरव को और अधिक बढ़ा दिया है। भक्ति के आचार्यों ने वात्सल्यभक्ति का निर्वचन भी किया और उसके उदाहरणस्वरूप अभिव्यक्ति भी दी। हिंदी के भक्त कवियों ने उस दायको स्वीकार किया और अपने काव्यों में आचार्यप्रणीत ग्रन्थों से प्रेरणा भी ली। इस तरह के कवियों में सूरदास ऐसे ही भक्तसंत हैं जिन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के आधार पर अपने सूरसागर के पदों की रचना की। श्रीमद्भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने काव्यमय विस्तार दिया। श्रीकृष्ण की बाललीलाओं के चित्रण में उनकी मति में व्यापक विस्तार और निखार आया। उनके विविधता भरे पदों में वात्सल्य-वर्णन के कारण विद्वानों ने वात्सल्यरस की पूर्ण प्रतिष्ठा का श्रेय संत सूरदास जी को ही दिया है।
सूर-साहित्य के दो रूप मिलते हैं- (1) वल्लभाचार्य जी की भेंट से पहले जब ये विनय और दीनता भरे भावों के पद गाते थे और (2) वल्लभाचार्य जी की भेंट के बाद जब इन्होंने भगवान की लीलाओं का वर्णन किया। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में आया है कि सूरदास जी ने वल्लभाचार्य जी के सामने दो पद गाये। पहला पद था- ‘हरि हौं सब पतितनि को नायक’ और दूसरा था- ‘प्रभु, हौं सब पतितनि कौ टीकौ’। इन्हें सुनकर वल्लभाचार्य जी ने कहा- ‘जो सूर है कें ऐसो घिघियात काहे को है कछु भगवल्लीला वर्णन करि’। सूरदास जी ने कहा कि मुझमें ऐसी समझ नहीं है। तब वल्लभाचार्य जी ने इन्हें उपदेश दिया। तब से सूरदास जी को नवधा-भक्ति सिद्ध हो गयी और इन्होंने भगवल्लीला की दृष्टि का स्फुरण पाया। जैसे कोई बालक पुराने खिलौंने को छोड़कर फिर नये खिलौने से ही खेलता है- ऐसे सूरदास जी ने उसके बाद से भगवान की लीलाओं का वर्णन प्रारम्भ किया।
सूरदास जी उच्च कोटि के संत होने के साथ-साथ उच्च कोटि के कवि भी थे। इन्होंने वात्सल्य और श्रृंगाररसप्रवाहिनी ऐसी विस्तृत और गमभीरताभरी भावाभिव्यक्ति की है कि इन्हें वात्सल्य और श्रृंगाररस का सम्राट कहा जाता है। सूरदास जी अन्धे थे, परंतु इन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त थी। ये भगवान के कीर्तनकार थे। जैसा भगवान का स्वरूप होता था, वे उसे अपनी बंद आँखों से वैसा ही वर्णन कर देते थे। ‘अष्टसखान की वार्ता’ में आया है कि एक बार श्रीविट्ठलनाथ जी के पुत्रों ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने नवनीतप्रिय बालकृष्ण की मूर्ति का कोई श्रृंगार नहीं किया। नग्न मूर्ति पर मोतियों की माला लटका दी और सूरदास जी कीर्तन करने की प्रार्थना की। दिव्य-दृष्टि प्राप्त सूरदास जी ने पद गाया-
देखे री हरि नंगम नंगा।
जल सुत भूषन अंग बिराजत बसनहीन छबि उठत तरंगा।।
भक्ति के आचार्यों ने वत्सल अथवा वात्सल्य भक्ति पर बल देकर और उसका भक्ति में समावेश करके उसके गौरव को और अधिक बढ़ा दिया है। भक्ति के आचार्यों ने वात्सल्यभक्ति का निर्वचन भी किया और उसके उदाहरणस्वरूप अभिव्यक्ति भी दी। हिंदी के भक्त कवियों ने उस दायको स्वीकार किया और अपने काव्यों में आचार्यप्रणीत ग्रन्थों से प्रेरणा भी ली। इस तरह के कवियों में सूरदास ऐसे ही भक्तसंत हैं जिन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के आधार पर अपने सूरसागर के पदों की रचना की। श्रीमद्भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने काव्यमय विस्तार दिया। श्रीकृष्ण की बाललीलाओं के चित्रण में उनकी मति में व्यापक विस्तार और निखार आया। उनके विविधता भरे पदों में वात्सल्य-वर्णन के कारण विद्वानों ने वात्सल्यरस की पूर्ण प्रतिष्ठा का श्रेय संत सूरदास जी को ही दिया है।
सूर-साहित्य के दो रूप मिलते हैं- (1) वल्लभाचार्य जी की भेंट से पहले जब ये विनय और दीनता भरे भावों के पद गाते थे और (2) वल्लभाचार्य जी की भेंट के बाद जब इन्होंने भगवान की लीलाओं का वर्णन किया। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में आया है कि सूरदास जी ने वल्लभाचार्य जी के सामने दो पद गाये। पहला पद था- ‘हरि हौं सब पतितनि को नायक’ और दूसरा था- ‘प्रभु, हौं सब पतितनि कौ टीकौ’। इन्हें सुनकर वल्लभाचार्य जी ने कहा- ‘जो सूर है कें ऐसो घिघियात काहे को है कछु भगवल्लीला वर्णन करि’। सूरदास जी ने कहा कि मुझमें ऐसी समझ नहीं है। तब वल्लभाचार्य जी ने इन्हें उपदेश दिया। तब से सूरदास जी को नवधा-भक्ति सिद्ध हो गयी और इन्होंने भगवल्लीला की दृष्टि का स्फुरण पाया। जैसे कोई बालक पुराने खिलौंने को छोड़कर फिर नये खिलौने से ही खेलता है- ऐसे सूरदास जी ने उसके बाद से भगवान की लीलाओं का वर्णन प्रारम्भ किया।
सूरदास जी उच्च कोटि के संत होने के साथ-साथ उच्च कोटि के कवि भी थे। इन्होंने वात्सल्य और श्रृंगाररसप्रवाहिनी ऐसी विस्तृत और गमभीरताभरी भावाभिव्यक्ति की है कि इन्हें वात्सल्य और श्रृंगाररस का सम्राट कहा जाता है। सूरदास जी अन्धे थे, परंतु इन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त थी। ये भगवान के कीर्तनकार थे। जैसा भगवान का स्वरूप होता था, वे उसे अपनी बंद आँखों से वैसा ही वर्णन कर देते थे। ‘अष्टसखान की वार्ता’ में आया है कि एक बार श्रीविट्ठलनाथ जी के पुत्रों ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने नवनीतप्रिय बालकृष्ण की मूर्ति का कोई श्रृंगार नहीं किया। नग्न मूर्ति पर मोतियों की माला लटका दी और सूरदास जी कीर्तन करने की प्रार्थना की। दिव्य-दृष्टि प्राप्त सूरदास जी ने पद गाया-
देखे री हरि नंगम नंगा।
जल सुत भूषन अंग बिराजत बसनहीन छबि उठत तरंगा।।
TrishiTanya:
is it copied from somewhere ?
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Answer: thanks
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