Explanation of Ek phool ki chah
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Ek Phool ki Chah (एक फूल की चाह) - CBSE Class 9 Hindi Sparsh Lesson 10 summary with detailed explanation of the Poem ‘Ek Phool ki Chah’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the poem, along with summary and all the exercises, Question and Answers given at the back of the lesson.
Explanation:
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Line by line explanation
एक फूल की चाह
सियारामशरण गुप्त
उद्वेलित कर अश्रु राशियाँ,
हृदय चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण कंठ मृतवत्साओं का
करुण रुदन दुर्दांत नितांत,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशांत।
एक महामारी प्रचंड रूप से फैली हुई थी जिसने लोगों की अश्रु धाराओं को उद्वेलित कर दिया था और दिलों में आग लगा दी थी। जिन औरतों की संतानें उस महामारी की भेंट चढ़ गई थीं उनके कमजोर पड़ते गले से लगातार करुण रुदन निकल रहा था। उस कमजोर पर चुके रुदन में भी अपार अशांति का हाहाकार मचा हुआ था।
बहुत रोकता था सुखिया को,
‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।
इस कविता का मुख्य पात्र अपनी बेटी सुखिया को बार बार बाहर जाने से रोकता था। लेकिन सुखिया उसकी एक न मानती थी और खेलने के लिए बाहर चली जाती थी। जब भी वह अपनी बेटी को बाहर जाते हुए देखता था तो उसका हृदय काँप उठता था। वह यही सोचता था कि किसी तरह उसकी बेटी उस महामारी के प्रकोप से बच जाए।
भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
लेकिन वही हुआ जिसका कि डर था। एक दिन सुखिया का बदन बुखार से तप रहा था। उस बच्ची ने बुखार की पीड़ा में से बोला कि उसे किसी का डर नहीं था। वह तो बस देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहती थी ताकि वह ठीक हो जाए।
क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव नव उपाय की
चिंता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण घनों में कब रवि डूबा,
कब आई संध्या गहरी।
सुखिया में इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि मुँह से कुछ आवाज निकाल पाए। उसके अंग अंग शिथिल हो रहे थे। उसका पिता किसी चमत्कार की आशा में चिंति बैठा हुआ था। पता ही न चला कि कब सुबह से दोपहर हुई और फिर शाम हो गई।
सभी ओर दिखलाई दी बस,
अंधकार की ही छाया,
छोटी सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया।
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते से अंगारों से,
झुलसी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।
चारों और अंधकार ही दिख रहा था जो लगता था कि उस मासूम बच्ची को डसने चला आ रहा था। ऊपर विशाल आकाश में चमकते तारे ऐसे लग रहे थे जैसे जलते हुए अंगारे हों। उनकी चमक से आँखें झुलस जाती थीं।
देख रहा था जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांति सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
जो बच्ची कभी भी स्थिर नहीं बैठती थी, आज वही चुपचाप पड़ी हुई थी। उसका पिता उसे झकझोरकर पूछना चाह रहा था कि उसे देवी माँ के प्रसाद का फूल चाहिए।
ऊँचे शैल शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि कर जाल।
दीप धूप से आमोदित था
मंदिर का आँगन सारा;
गूँज रही थी भीतर बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।
पहाड़ की चोटी के ऊपर एक विशाल मंदिर था। उसके प्रांगन में सूर्य की किरणों को पाकर कमल के फूल स्वर्ण कलशों की तरह शोभायमान हो रहे थे। मंदिर का पूरा आँगन धूप और दीप से महक रहा था। मंदिर के अंदर और बाहर किसी उत्सव का सा माहौल था।
भक्त वृंद मृदु मधुर कंठ से
गाते थे सभक्ति मुद मय,
‘पतित तारिणी पाप हारिणी,
माता तेरी जय जय जय।‘
‘पतित तारिणी, तेरी जय जय’
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढ़िकला।
भक्तों के झुंड मधुर वाणी में एक सुर में देवी माँ की स्तुति कर रहे थे। सुखिया के पिता के मुँह से भी देवी माँ की स्तुति निकल गई। फिर उसे ऐसा लगा कि किसी अज्ञात शक्ति ने उसे मंदिर के अंदर धकेल दिया।
मेरे दीप फूल लेकर वे
अंबा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ सा पाकर मैं।
सोचा, बेटी को माँ के ये,
पुण्य पुष्प दूँ जाकर मैं।
पुजारी ने उसके हाथों से दीप और फूल लिए और देवी की प्रतिमा को अर्पित कर दिया। फिर जब पुजारी ने उसे प्रसाद दिया तो एक पल को वह ठिठक सा गया। वह अपनी कल्पना में अपनी बेटी को देवी माँ का प्रसाद दे रहा था।
सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि – “कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों के जैसा।
अभी सुखिया का पिता मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुँच पाया था कि किसी ने पीछे से आवाज लगाई, “अरे यह अछूत मंदिर के भीतर कैसे आ गया? इस धूर्त को तो देखो, कैसे सवर्णों जैसे पोशाक पहने है। पकड़ो, कहीं भाग न जाए।
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