explanation of the poem dhool by sarveshwar dayal saxena
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"जंगल का दर्द" काव्य-संग्रह में कवि
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की चुनी हुई दो कविताएँ -
धूल - ( एक )
तुम धूल हो -
पैरों से रौंदी हुई धूल ।
बेचैन हवा के साथ उठो ,
आँधी बन
उनकी आँखों में पड़ो
जिनके पैरों के नीचे हो ।
ऐसी कोई जगह नहीं
जहाँ तुम पहुच न सको
ऐसा कोई नहीं
जो तुम्हे रोक ले ।
तुम धूल हो -
पैरों से रौंदी हुई धूल
धूल से मिल जाओ ।
धूल ( दो )
तुम धूल हो
ज़िंदगी की सीलन से
दीमक बनो
रातों-रात
सदियों से बंद
दीवारों की
खिड़कियाँ
दरवाजे
और रोशनदान चाल दो ।
तुम धूल हो
ज़िंदगी की सीलन से जनम लो
दीमक बनो, आगे बढो़।
एक बार रास्ता पहचान लेने पर
तुम्हें कोई खत्म नहीं कर सकता ।
* * * * *
धूल - ( एक )
तुम धूल हो -
पैरों से रौंदी हुई धूल ।
बेचैन हवा के साथ उठो ,
आँधी बन
उनकी आँखों में पड़ो
जिनके पैरों के नीचे हो ।
ऐसी कोई जगह नहीं
जहाँ तुम पहुच न सको
ऐसा कोई नहीं
जो तुम्हे रोक ले ।
तुम धूल हो -
पैरों से रौंदी हुई धूल
धूल से मिल जाओ ।
धूल ( दो )
तुम धूल हो
ज़िंदगी की सीलन से
दीमक बनो
रातों-रात
सदियों से बंद
दीवारों की
खिड़कियाँ
दरवाजे
और रोशनदान चाल दो ।
तुम धूल हो
ज़िंदगी की सीलन से जनम लो
दीमक बनो, आगे बढो़।
एक बार रास्ता पहचान लेने पर
तुम्हें कोई खत्म नहीं कर सकता ।
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