फागुन के दिन चार होरी खेल मना रे।
बिन करताल पखावज बाजै,अणहद की झनकार रे।
बिन सुर राग छतीतूं गावै, रोम-रोम रणकार रे ।।
सील संतोख की केसर घोली, प्रेम-प्रीत पिचकार रे ।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।
घट के पट सब खोल दिए हैं, लोकलाज सब डार रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, चरण कँवल बलिहा
३) उपर्युक्त पक्ष्यांश का भावार्थ लिखिए।
Answers
फागुन के दिन चार होरी खेल मना रे।
बिन करताल पखावज बाजै,अणहद की झनकार रे।
बिन सुर राग छतीतूं गावै, रोम-रोम रणकार रे ।।
सील संतोख की केसर घोली, प्रेम-प्रीत पिचकार रे ।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।
घट के पट सब खोल दिए हैं, लोकलाज सब डार रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, चरण कँवल बलिहा
भावार्थ ⦂
✎... मीराबाई कहती है अपने मन से कहती हैं कि हे मेरे मन! फागुन के महीने में होली खेलने का समय बहुत कम होता है। इसलिए तू अभी जी भर कर होली खेल ले। मीराबाई का कहने का तात्पर्य है कि मानव जीवन बेहद छोटा होता है, इसलिए इस छोटे जीवन में श्री कृष्ण से जितना प्रेम करना है, तो प्रेम कर लिया जाए। जिस तरह होली के उत्सव में लोग नाचते गाते हैं। उसी तरह कृष्ण के प्रेम में भी मुझे ऐसा ही आनंद प्रतीत हो रहा है कि चारों तरफ करताल, पखावज आदि बाजे बज रहे हैं और अनहद नाद का स्वर सुनाई दे रहा है। इन सब से मेरा ह्रदय प्रफुल्लित हो उठा है और बिना स्वर और राग के अनेक रागों का आलाप कर रहा है।
मेरे शरीर का रोम रोम श्री कृष्ण के प्रेम के रंग से पुलकित है। मैंने अपने प्रियतम श्री कृष्ण से होली खेलने के लिए शील और संतोष रूपी केसर का रंग घोल लिया है। मेरे प्रियतम ही प्रेम होली की खेलने की पिचकारी के समान है। चारों तरफ उड़ते हुए गुलाल से सारा आकाश लालिमायुक्त हो गया है। अब मुझे लोकलाज का कोई भय नहीं क्योंकि मैंने अपने हृदय रूपी घर के दरवाजे खोल दिए हैं। मीराबाई कहती हैं कि मेरे स्वामी श्री कृष्ण गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले हैं, मैंने तो अपना सब कुछ उनके उनके चरण कमलों में अर्पित कर दिया है।
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Answer:
मीराबाई कहती है फन का महीना आया है इसलिए है मन, हेली खेलो। बिना करताल के पखवाज बज रहा है। उसे सुनकर मेरी अंतरात्मा में कार सुनाई दे रही है मैं सुरों की सहायता बिना भी श्रेष्ठ राग गा रही हूँ। मेरा रोम रोम रोमांचित है गया है। मैंने शोल व दोष रंग है तथा प्रेमरूपी विकारी बनाई है। चारों ओर गुलाल उड़ रहा है जिससे पुरा का लाल हो गया है। प्रेमरूपी रंग चारों दिशाओं से बरस रहे हैं। मैंने शरीररूपी वस्त्र को त्याग कर लोकल सब छोड़ दिया है। श्रीकृष्ण है मेरे गिरिधर नागर है। वे है भवसागर से मेरा बेड़ा पार उतारेंगे इसलिए मैं उनके कमल रूपी चरणों पर अपने आप को निछावर करती हूँ।