फूल पर खुद से लिखी कोई एक कविता
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अंतर्मुखी कुसुम
किसी शहर के बाग में
फूलों की भी एक दुनिया थी
उनमें एक अंतर्मुखी कुसुम की
अपनी अलग ही दुनिया थी
लोग आते फूलों को निहारते
और आगे बढ़कर चले जाते
पर किंचित ही कभी भी उस
कुसुम के मन में भी झांकते
संसार की शोभा बढ़ाने के लिए
सारे फूल अब तैयार हो रहे थे
पर बेचारे कुसुम ने हर एक दिन
मानसिक अवसाद और दुख सहे थे
जिस कारण से अनिभिज्ञ कुसुम अब
खुद को हीन भावना से देखने लगा
छोटी छोटी बातों पर भी हमेशा
चिंतित, आहत और दुखी रहने लगा
पर एक दिन......
पर एक दिन इस धरा के सारे तत्वों में
एक नया बहुर्मुखी धातु ऐसा भी आया
जिसने उस मुरझाए कुसुम में
नई ऊर्जा और सकारत्मकता लाया
जिससे उस अंतर्मुखी कुसुम के
अंदर भी एक हिम्मत और आस जगा
मानो जैसे उसे भी कोई मिल गया
अपनी जैसा नहीं पर अपना कोई सगा
अंततः कुसुम ने प्रिय धातु से
मदद मांगने की हिम्मत किया था
जिसके फलस्वरूप फिर से आज
नए कुसुम का सृजन हो रहा था