फ्रांसीसी क्रांति से कौन सी नई दिशाएं उत्पन्न हुई
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स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारे का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति के प्रेरक शब्द थे-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। इन तीन शब्दों ने विश्व की राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया।
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फ्रांसीसी क्रांति फ्रांस के इतिहास की राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल एवं आमूल परिवर्तन की अवधि थी जो 1789 से 1799 तक चली। बाद में, नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार द्वारा कुछ अंश तक इस क्रांति को आगे बढ़ाया। क्रांति के फलस्वरूप राजा को गद्दी से हटा दिया गया, एक गणतंत्र की स्थापना हुई, खूनी संघर्षों का दौर चला, और अन्ततः नेपोलियन की तानाशाही स्थापित हुई जिससे इस क्रांति के अनेकों मूल्यों का पश्चिमी यूरोप में तथा उसके बाहर प्रसार हुआ। इस क्रान्ति ने आधुनिक इतिहास की दिशा बदल दी। इससे विश्व भर में निरपेक्ष राजतन्त्र का ह्रास होना शुरू हुआ, नये गणतन्त्र एव्ं उदार प्रजातन्त्र बने।
आधुनिक युग में जिन महापरिवर्तनों ने पाश्चात्य सभ्यता को हिला दिया उसमें फ्रांस की राज्यक्रांति सर्वाधिक नाटकीय और जटिल साबित हुई। इस क्रांति ने केवल फ्रांस को ही नहीं अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। फ्रांसीसी क्रांति को पूरे विश्व के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाता है। इस क्रान्ति ने अन्य यूरोपीय देशों में भी स्वतन्त्रता की ललक कायम की और अन्य देश भी राजशाही से मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगे। इसने यूरोपीय राष्ट्रों सहित एशियाई देशों में राजशाही और निरंकुशता के खिलाफ वातावरण तैयार किया।
क्रांति का प्रभाव किसानों पर
यूरोप में फ्रांस ही वह देश है जिसने क्रांति के माध्यम से पुरातन व्यवस्था के पतन को सुनिश्चित किया। इस क्रांति का प्रभाव यूरोप तक ही सीमित न रहा। इसने समस्त विश्व को प्रभावित किया। क्रांति के नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का प्रसार पूरे यूरोप में हुआ। एक तरफ इसने जहां राष्ट्रवाद, जनतंत्रवाद जैसी नई शक्तियों को पनपने का मौका दिया तो दूसरी तरफ आधुनिक तानाशाही और सैनिकवाद की नींव भी डाली।
फ्रांसीसी क्रांति के प्रभावों को निम्न बिन्दुओं के तहत् समझा जा सकता हैः
स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारे का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति के प्रेरक शब्द थे-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। इन तीन शब्दों ने विश्व की राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। जिस प्रकार धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में सत्यम् शिवम् और सुन्दरम का महत्व है उसी प्रकार राजव्यवस्था में स्वतंत्रता एवं बंधुत्व का भारत सहित अनेक देशों के संविधानों में भावना को देखा जा सकता है।
लोकतांत्रिक सिद्धान्त का विकास : फ्रांसीसी क्रांति का महत्व इस बात में है कि इसमें लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। क्रांति ने शासन के दैवी सिद्धान्त का अंत कर लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त को मान्यता दी। मानवधिकारों की घोषणा ने व्यक्ति की महत्ता को प्रतिपादित किया और यह सिद्ध किया कि सार्वभौम सत्ता जनता में निहित है और शासन का अधिकार जनता से आता है।
सामंतवाद की समाप्ति : फ्रांसीसी क्रांति ने सामंती व्यवस्था पर चोट कर सामंती विशेषाधिकारों का अंत किया और क्रांति की ये उपलब्धि यूरोप के अन्य देशों को भी प्रभावित करती रही।
राष्ट्रवाद का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति ने जन-जन में राष्ट्रवाद की भावना को पैदा किया। वस्तुतः अभी तक आम जनता की भक्ति राजा के प्रति थी। फ्रांसीसी क्रांति ने राजभक्ति को देशभक्ति में परिवर्तित कर दिया। इतना ही नहीं, फ्रांस के बाहर भी फ्रांसीसी क्रांति ने राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया और नेपोलियन के साम्राज्यवादी विस्तार को रोका।
धर्मनिरपेक्षता की भावना का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति ने धर्म को राज्य से अलग कर धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान किया। अब धर्म व्यक्तिगत विश्वास की वस्तु बन गई। जिसनें राज्य को किसी तरह हस्तक्षेप नहीं करना था।
सैन्यवाद का विकास : फ्रांसीसी क्रांति ने सैन्यवाद को प्रेरित किया। वस्तुतः नागरिकों के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी गई। युद्ध के लिए जनता की संपूर्ण लामबंदी के लिए ये पहली अपील थी। कहा गया "अब से जब तक गणतंत्र के प्रदेश से शत्रुओं को निकाल बाहर नहीं कर दिया जाता तब तक फ्रांसीसी जनता स्थायी रूप से सैनिक सेवा के लिए उपलब्ध रहेगी।" अभी तक युद्ध राजा के पेशेवर सैनिकों द्वारा लड़ा जाता था। इसी सैन्यवाद ने आगे चलकर अनेक राष्ट्रों को प्रभावित किया और प्रथम विश्वयुद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बना।
अधिनायकवाद की शुरूआत : फ्रांसीसी क्रांति को अधिनायकवाद का उद्गम स्रोत माना जाता है। रॉबस्पिर के 'आतंक का शासन' उसका पहला जीता जागता सबूत था। क्रांति के दौरान अनेक नीतियों और सिद्धान्तों को बदलना पड़ा और वे असफल हुए। फलस्वरूप एक व्यक्ति की योग्यता पर बल दिया जाने लगा। इसी से नेपोलियन जैसे तानाशाह का उद्भव संभव हुआ। आगे चलकर इटली, जर्मनी सहित कई देशों में अधिनायकवाद पनपा।
समाजवाद का मार्ग प्रशस्त : फ्रांसीसी क्रांति ने समाजवादी आंदोलन को दिशा दी। एक प्रगतिवादी संस्था "एनरेजेज" के लोगों ने जनता की ओर से बोलने का दावा करते हुए मांग की कि कीमतों पर सरकारी नियंत्रण हो, गरीबों की सहायता की जाएं और युद्ध खर्च को पूरा करने के लिए धनवानों पर भारी कर लगाए जाए। 'अधिकतम नियम' (Law of maximum) के तहत वस्तुओं का अधिकतम मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित कर दिया गया। 1795 ई. में पैन्थियन सोसायटी का गठन हुआ। इसका उद्देश्य मजदूर वर्ग के आंदोलन को सशक्त करना था। इससे संबंधित एक "ट्रिब्यून" नामक पत्र निकलता था जिसका संपादक- नोएल बवूफ था। वह फ्रांस में ऐसी राजव्यवस्था स्थापित करना चाहता था जो पूंजीवादी प्रभाव से मुक्त हो और आर्थिक समानता से परिपूर्ण हो। उसने सर्वहारा वर्ग के माध्यम से क्रांतिकारी कार्यक्रम बनाए। यद्यपि पैन्थियन विद्रोह का दमन कर दिया गया किन्तु आधुनिक समाजवादी आंदोलन "बवूफवाद" से काफी प्रभावित रहा।